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जैन महाभारत मेरा मन देखने के लिए हसी कर रहे हैं या सचमुच यह बालक सदा मेरी ही गोद की शोभा बढ़ायेगा और मेरा ही लाल कहलायगा। क्या कोई मां बाप ऐसे सुन्दर लाडले लाल का जन्म देते ही नदी में बहा सकते है प्राणनाथ ! आपकी बातो पर कुछ विश्वास नहीं हो रहा है। हंसी न कीजिये आप सच सच बताइये ।
तब सुभद्र सेठ ने मुस्कराते हुए कहा-इतनी व्याकुल क्यो होती हो! रंक को सहसा महानिधि मिल जाय तो वह विश्वास भी कैसे करे, वही दशा तुम्हारी भी है । पर विश्वास रखो प्रत्यक्ष मे प्रमाण की आवश्य कता नहीं । अब तुम्हारी गोद से इस बच्चे को छीनने कोई न आवेगा। अब तुम हो और तुम्हारा यह वालक । यह सुनकर सेठानी ने सुख की सांस लो । पुत्र की प्राप्ति के फल स्वरूप बड़ी धूमधाम के साथ उसके जाति कर्म नामकरण आदि संस्कार किए गये । यह बालक कांसे की पेटी में प्राप्त हुआ था, इसलिए इसका नाम कंस रक्खा गया । धीरेधीरे बालक द्वितीया के चन्द्र कला की भांति बड़ा होने लगा।
बालक कस की राक्षसी क्रीड़ा
चार पांच वर्ष की अवस्था में ही यह बच्चा ऐसा हृष्ट पुष्ट और स्वस्थ दिखाई देता था कि बारह-तेरह वर्ष का कोई अत्यन्त सशक्त स्वस्थ बालक हो । इस छोटी सी अवस्था में ही उसकी मां की सब इच्छाएं पूरी हो गई। शरारतों से सारा नगर तग आ गया। शरारतें भी कोई साधारण नहीं । वह दिन पर दिन बड़े ही भयकर और हिंसक कांड करने लगा। कभी किसी के बच्चे को उठाकर कुए मे फेक देता तो कभी किसी बालक को अपनी सशक्त भुजाओं में उठाकर उसे आकाश में गेद की भांति उछाल देता। कभी पांच-पांच-सात-सात बच्चों को पकड़कर उन्हें घोड़ों की भांति मीलों तक दौड़ाता। इस प्रकार इस बालक की ये लीलाये सारे नगर के लिये असह्य हो उठी। सात-आठ वर्ष की अवस्था मे ही वह इतना बलवान, क्रूर और सशक्त था कि बड़े-बड़े पहलवानों के लिए भी वह भारी था।
मां-बाप ने प्यार, दुलार, लाड फटकार आदि सभी उपायों से काम 37 ले लिया पर सब व्यर्थ । बिचारो के नाको दम हो गया । पुत्र का
उत्साह और चाव कुछ ही वर्षों में पूरा हो गया। उस दुष्ठ बालक ने श्रेष्ठी दम्पत्ति के हृदय में विरक्ति के भाव भर दिए क्योकि वह