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जैन महाभारत
हजार वर्ष X तक कठोर तप किया । मृत्यु के समय उन्होंने यह निदान बांधा कि मैं इस तप के प्रभाव से दूसरे जन्म में स्त्रीवल्लभ वनू । अर्थात् इस जन्म मे मै प्रत्येक प्राणी से घृणित था । किन्तु भविष्य मे प्रत्येक के हृदय का हार बन्" ऐसा दृढ निदान करने के पश्चात् शरीर छोड़कर महा शुक्र देवलोक में जाकर देव बना ।
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हे राजन् | पूर्व भव का वह नन्दीपेण मुनि महाशुक्र देव से च्युत होकर तुम्हारे घर मे वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुआ है । अपने अन्तिम समय के निदान के अनुसार उन्हे इस जन्म मे अनुपम रूप सौन्दर्य और ऐसा कौशल प्राप्त हुआ है कि जो उन्हे देखता है वही मुग्ध हो जाता है । अपने इन गुणों के कारण ही वह रमणियों के हृदय को बरबस जीत लेता है ।"
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सुप्रतिष्ठित अणगार के द्वारा वसुदेव के पूर्व भव का यह वृत्तान्त सुनकर महाराज अन्धकवृष्णि हर्ष विभोर हो गये उन्होने अपने राज्य का अधिकारी अपने सबसे बड़े पुत्र समुद्रविजय को बनाकर मुनिराज के निकट दीक्षा ले ली । अन्त मे वे भी मोक्ष के अधिकारी हो गये । -महाराजभोजक वृष्णि ने भी उन्हीं का अनुसरण किया । भोजकवृष्णि के पश्चात् मथुरा के राजसिंहासन पर उग्रसेन बैठे ।
X'नन्दीषेण ने ५५ हजार वर्ष तप किया ऐसा वसुदेव हिड्यादि ग्रन्थो में उल्लेख पाया जाता है ।