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का उद्भव तथा विकास
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यदुवश
कहलाता है। अरि मे अभिप्राय है शत्रु ओर हन्त का अर्थ है हनन करने वाला अर्थात जिन्होंने अपनी विशिष्ट मावना से कर्म रूप शत्रुओं का हनन (विनाश ) किया है वे अरिहन्त हैं। ये शत्र दो प्रकार के हैंद्रव्य शत्रु और भाव शत्रु । भावशत्रु श्रात्मा के श्रपने संक्लिष्ट परिणाम की है और द्रव्यशत्रु वह है जो जीव की स्ववीनता में वस्तु प्राप्ति श्रादि की काट म निमित्त बनता है, किन्तु उन निमित्तों में भी मूल कारण वस्तुतः प्रपने परिणामों की सक्लिष्टता ही है। जब इस मक्लिप्टता को समाप्त कर दिया जायगा तो द्रव्य शत्रता स्वय ही समाप्त हो जायेगे क्योंकि मन प्राणियों में सम भाव रहेगा, मैत्री सबन्ध होगा । ये श्ररिहत दो प्रकार के हैं—एक तीर्थकर अरिहन्त तथा सामान्य केवली अरिहन्त । तीर्थंकर का अर्थ है तीर्थ-धर्म की स्थापना करने वाले अर्थात कर्म पाश में हुए प्राणियों को सर्व प्रथम श्राकर उससे मुक्त होने का जो उपाय बतलाते हैं (जिससे मुक्त हुए हैं औरों को मुक्त करते हैं ) उन्हें तीर्थकर कहते हैं। ये चौतीस प्रतिशय, पैंतीस वाणी, अष्ट महाप्रतिहार्य आदि विशिष्ट गुग्गी युक्त होते हैं तथा अठारह दोष रहित होते हैं । और सामान्य अरिहन्त (केवली ) भी बारह गुग्गायुक्त एव श्रठारह दोष रहित होते है किन्तु तीर्थकर पद का विशिष्ट महत्व यही है कि वे ससार मे सब से प्रथम प्राकर मार्गगामी प्राणियों के लिए तीर्थ धर्म की स्थापना करते है जिस के आधार से प्राणी जरा जन्म-मरण. श्राधि-व्याधि रूप कष्टों का नाशकर कमरा प्रात्म विकास करता हुआ अरिहन्त दशा को प्राप्त कर इन तीर्थंकर को धर्म प्रर्वतक, धर्म के आदि कर्त्ता दि कहा गया है यार सामान्य केवली तीर्थ आदि की स्थापना नहीं करते । भरत राव और महाविदेह क्षेत्रों में इन अरिहन्त तीर्थकरों का जन्म होना । राजकुमारी ने प्रश्न किया कि क्या इस समय भी कोई अरिहन्त बिचार्या ने कहा- इस समय इन भरत क्षेत्र में श्री विनायक है जो दिन-रात ज्ञान पिपासुओं का ज्ञानामृत पिने में उन्ही के शासन की साधी है। राजकुमारी फिर से सोनी नापी। इन परिहन्त को नमस्कार करने में क्या लाभ हेप्पीन उपर दिया - प्रथितों को नमस्कार करने में अभिमान नहाता पर नाच कर्मा पर गोत्र कर्म तथा नाम सारण से जन्म-जन्म के पाप दूर हो जाते है ।
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