________________
द्रौपदी स्वयंवर
५८५ क्रियाओं में उतारने लगी। इस प्रकार कुछ वर्षों तक एकांकी जीवन बिता कर काल धर्म को प्राप्त हुई। मृत्युपरान्त वह देवलोक में अपरिगृहीता देवियों में उत्पन्न हुई।
हे राजन् । देव आयुष्य को पूर्ण कर उसी देवी ने चूलना की कुक्षि से तेरे घर जन्म लिया है। और पूर्व कृत निदान (फल प्राप्ति की अभिलाषा) के कारण ही पाँचों के गले में वरमाला प्रतीत हुई अत इससे चिन्तित तथा विचार मग्न होने की आवश्कता नहीं है । क्योंकि निदान शल्यरूप होता है। शरीर के किसी अंग में चुभा हुश्रा काटा निकल न जाय तब तक चैन नहीं लेने देता ठीक उसी भाँति निदान की पूर्ति अर्थात् उसका फल प्राप्त न हो जाय अभिलाषा तीव्र बनी ही रहती है। तीन प्रकार के शल्य होते हैं माया निदान और मिथ्यादर्शन । जिनके फलस्वरूप प्रात्मा मोक्ष से वचित रह नाना क्लेशों को प्राप्त होता है। ___ मायाशल्य-अपने स्वार्थ वश अथवा निरर्थक ही दूसरों के साथ कपट विश्वासघात तथा मिथ्या दोषारोपण आदि का व्यवहार करते रहना। इस क्रिया से वस्तुतः मानव अपने साथ ही कपटपूर्ण व्यवहार करता है, उसके हृदय में प्रति क्षण उसकी रक्षा के लिये अशांति बनी ही रहती हैं। इस आत्मवचना का प्रतिफल भव भवान्तरों अवश्य में ही भोगना पड़ता है । दूसरा निदान शल्य-यह अनेक प्रकार है, शुभ भी अशुभ भी। किन्तु इसकी भी पूर्ति के बिना त्याग, तप और सयम की ओर लगाव हाना सर्वथा असभव होता है अत यह भी मुमच के लिए बाधक है।
तीसरा मिथ्या दर्शन-इस शल्य के होते हुए उस आत्मा में तत्त्वातत्त्व के परिक्षण की शक्ति नहीं होती, बुद्धि सर्वथा विपरीत वस्तुओं के श्रद्धान में ही लीन रहती है। जिसके प्रभाव से वाचिक व कायिक प्रवृत्तियाँ भी उसी तरह की हो जाती हैं । इसी प्रकार अध-श्रद्धा-विश्वास में फसे रहने से आत्मा पर निरन्तर कर्म कालुष्य आता रहता है जो भव वृद्धि में कारण रुप है, अतः ऐसी स्थिति में आत्म माक्षात्कार होना तो दुर्लभ है ही किन्तु जीवन के सामान्य गुण भी प्राप्त नहीं हो पाते। ऐसे आत्मा पर दूसरों के विचारों का प्रभाव शीघ्र ही हो जाता है । अत वह अपना एक मार्ग निश्चित नहीं कर पाता और मार्ग दर्शन के अभाव में इतस्तत भटकता रहता है। अतः