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जैन महाभारत
हत्या के लिए उतारू हो जाये । अर्थात् जीवन परित्याग की कामना करे । अतः तुम इसे कहीं एकांत शुद्ध स्थान - जीव रहित भूमि पर जाकर उपयोग पूर्वक डाल दो और अन्य आहार की गवेषणा कर पारण करो ।" तदनुसार गुरु आज्ञा को शिरोधार्य करता हुआ उपवन से निकलकर निजन वन मे चला गया । वहाँ जाकर उसने एक निर्वद्य स्थान पर शाक के एक बिन्दु को डालकर देखा कि उसकी तीव्र गन्ध के प्रभाव से सहस्रों चींटियां इधर-उधर घूमती हुई आ पहुंची तथा अन्य जीव भी आकर मडराने लगे । ज्योंही चींटी आदियो ने उस शाक का आस्वादन किया त्यों ही वे मरती चली गई। उनके लिए उसका एक बिन्दु भी विष का आगार बन गया ।
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उनको इस तरह मरते हुए देख धर्मरुचि की हृदय द्रवित हो उठा । उस दयालु मुनिराज ने करुण विगलित हो सोचना आरम्भ किया कि "सभी जीव इस जगती पर जीवित रहना चाहते हैं। दुख सबको अप्रिय लगता है । कोई भी अपने आपको दुखित एव त्रम्त देखना नहीं चाहता । मुझे जिस प्रकार अपने प्राण प्यारे हैं, प्रत्येक प्राणि भूत, सत्व को भी प्यारे है । यह आत्मोपम्य की पवित्र भावना ही तो संसार में प्राणियो के सम्बन्ध को जोड़े हुए है तथा सहानुभूति सह अस्तित्व आदि इसको उन्नति के लक्षण हैं । जहाँ इन तत्वों का अभाव होता है, वहाँ नाना दुख आकर सताने लगते हैं। जीवन नारकीय बन जाता है । जब मै इन सब बातों को जानता हूँ और स्वाध्याय, तप आदि का अनुसरण करता हूँ तो फिर यह अनर्थ क्यों करने लगा हूँ। जानते हुए, समझते हुए कुकृत्य का करना आत्मवंचना नहीं है ? क्या यह ससार को धोखा देना नहीं ? नहीं, मैं ऐसा कभी नहीं करूँगा। यह घोर पाप है, हिंसा है, नर्क का कारण है। ज्ञान दूसरों को निर्भय तथा जीवित रखने शिक्षा देता है तो चारिण्य उसे क्रियात्मक रूप देने की । किन्तु मैं एक अपने तनिक स्वार्थ के लिए कि जिन्दा रहूँगा इन सहस्रों के प्राणियों के प्राणों का अतिपावन करने लगा हूं। नहीं यह मेरे लिए कदापि उचित नहीं । मैंने कायिक जीवों की हिंसा न करने की मानसिक, वाचिक और कायिक योग से प्रतिज्ञा ली है, क्या मैं उसे आज भंग कर दूँ ?