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मेघ प्रेमन
मे प्रज्वलित
कुम्हला गया बाई अर्जुन
__ जैन महाभारत आवेश मे आ दॉत पीसने लगे, तो कइयों की लज्जा के मारे गर्दन मुक गई।
इधर भीमसेन अपनी कालस्वरूप गदा को लिये हुये सजग प्रहरी की भॉति चहुं ओर घूम रहा था और राजाओं को सम्बोधित करते हुए कह रहा था कि अब वीर अर्जुन राधावेध कार्य को प्रारम्भ कर रहा है। जिसे देख कर यदि किसी के मस्तिष्क में पीड़ा उत्पन्न होगी तो उस रोग का मेरी यह गदा निराकरण करेगी।'
पास ही बैठी द्रापदो अर्जुन की क्रिया को देखकर हर्षित हो रही थी। युधिष्ठिर आदि चारो भाइयो के नेत्ररूपी मेघ प्रेमवृष्टि कर रहे थे। तो दूसरी ओर दुर्योधन आदि मन ही मन द्वषाग्नि मे प्रज्वलित हो रहे थे। समस्त कौरव रूप कुमुदनी वन अर्जुन रूप सूर्य के उदित होने पर कुम्हला गया था। उनका मुख निस्तेज प्रतीत होने लगा । लक्ष्यवेध के लिये तत्पर खड़े अर्जुन को देखकर द्रोपदी पुनः मन ही मन प्रार्थना करने लगी-हे उपास्य देव । धनब्जय के भुजदण्डों मे वह अपूर्व बल तथा मरिष्तष्क में वह चातुर्य प्रदान करो जिससे वे इस महान परीक्षा में उत्तीर्ण होवें।"
इसी बीच द्रोणाचार्य खड़े होकर धृतराष्ट्र, पाण्डु, श्रादि को सम्बोधित करते हुवे कहने लगे हे कुरु राजन् । अब आप सावधान होकर अपने पुत्र अर्जुन के भुजचातुर्य को भली भांति देखिये।"
इस पर सभी दर्शक गण अपनी निर्निमेष दृष्टि से ऊपर की ओर ऐसे देखने लगे मानो आकाश मे कोई आश्चर्यजनक घटना घट रही हो।
बस फिर क्या था, बात की बात में ही नीचे तेल के कड़ाह में पडे प्रतिबिम्ब को देख कर अर्जुन ने धनुष की प्रत्यचा को पुन खींचा जिससे पहाड़ो के फटने के सदृश भयकर म ण ण ण • की ध्वनि निकली जिससे पृथ्वी भी कॉपती हुई प्रतीत हुई । दर्शको के कान बहरे हो गए। दिग्गज चिंघाड़ उठे। और सबके समक्ष उन चक्रों के विपरीत भ्रमण के बीच से निशाना मार कर राधा की बायी ऑख को वेध डाला। उस समय आकाश में स्थित देवो ने पुष्प वृष्टि की। कुन्ती
और पाण्डु को अपार हर्प हुा । द्रुपद चेलना व धृष्ट्रार्जुन की प्रसन्नता का तो पारावार ही न था क्योंकि उनकी प्रतिज्ञा की पूर्ति तथा पुत्री को