________________
जैन महाभारत
कर कोई राजकमार मूर्छित हो जाये । "मुझे तो विश्वास नहीं होता बेटा । आखिर वह ऐसी कितनी रूपवती थी कि तुम्हें देखकर ही मूर्छा आ गई।"
"मां वह रूप पृथ्वी पर तो देखने को मिलता नहीं। अब तक उसकी मूर्ति मेरी आंखों में बसी है। जैसे वह अभी तक मेरे सामने बैठी है" सुभानु बोला। __ सत्यभामा को स्वयं अपने रूप का ही अभिमान था, वह अपनी शका का निराकरण करने हेतु हाथी पर सवार होकर उपवन की ओर चल पड़ी।
उपवन में पहुँच कर उसने कोना कोना छान मारा, तब कहीं जाकर उसे एक स्थान पर पुष्प लताओ के झुरमट में बैठी वह सुन्दरी दिखाई दी। एक बार उसके मद भरे नेत्रों को देखकर ही वह मुग्ध हो गई । उसके गुलाबी रंग के कपोल और कमल की पखडियों से अधर पल्लव देखकर वह अपना आपा भूल गई। हठात् उसके मन ने कहा-"इस रूपसी पर क्यों न कोई युवक सुधबुध खो दे । कितना मादक है इसका सौंदर्य । वास्तव में स्वर्ग लोक की अप्सरा ही दीखती है।" __वह उसके निकट गई। षोड्शी अपने आप में ही सिमट गई। सत्यभामा ने जाकर एक बार उसे अपने अतृप्त नेत्रों से ऊपर से नीचे तक देखा और फिर पूछा-'सुन्दरी तुम कौन हो, और यहाँ कैसे आई हो ? बह वोली-"मैं एक दूर देश की राजकन्या हूं। अपने मामा जी के पास रहती थी, मुझे विवाह योग्य समझ कर पिता जी वहाँ से मुझे ले आये । रास्ते में थककर इस उपवन मे विश्राम करने के हेतु रुके । रात्रि को सभी सो गए, पर मुझे नींद नहीं आई भाभी का वियोग सना रहा था । व्याकुल थी, उठकर एक दूसरे वृक्ष के नीचे जा बैठी।
और वहीं नींद आ गई। प्रात जब मेरी आंखें खुली तो मैंने चारों ओर देखा, पर वहां कोई नहीं था। पिता जी और उनके सेवक जा चुके थे । उसी समय से यहां बैठी हूं, व्याकुल एव दुखित । पता नहीं पिताजी कहां चले गए। मुझे क्यों छोड़ गए। मुझे अकेलापन खाये जा रहा है। चिन्तित हूँ। आर हो मुझे मेरे घर पहुचने का उपाय वता दीजिए।"