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जैन महाभारत पांव पड़ेगा। इसलिए उठो । हृदय की इस दुर्बलता को छोड़ो और अपने पूर्व के पापों को धो डालने के लिये प्रयत्नशील हो जाओ। क्योंकि तुम्हारे ये पिछले जन्मजन्मानतरों के पापकर्म हैं, उन्हीं के फलस्वरूप इस जन्म में तुम्हे ऐसी कुरूप देह और यह कष्टमय जीवन प्राप्त हुआ है । अब भी शुभ कर्म करो ताकि अगले भव में तुम सब प्रकार से सुखी समृद्ध व सौभाग्यशाली बन सको। धर्म ही एक ऐसी वस्तु है जिसकी शरण मे चले जाने पर मनुष्य को किसी प्रकार का कोई अभाव नहीं सता सकता । इसलिये मेरा कहना मानो और अभी से धर्माचरण के लिये तत्पर हो जाओ।
यह सुनकर नन्दीषण ने कहा कि "महाराज आप तो कहते हैं कि मेरे पूर्वजन्म पापों का परिणाम ही मुझे इस जन्म में भोगना पड़ रहा है और यदि में इस जन्म मे शुभकर्म करूगा तो अगले जन्म में उस का अत्यन्त शुभ फल मिलेगा, किन्तु मेरा तो लोक-परलोक में कुछ भी विश्वास नहीं, आत्मा क्या है ? वह क्यों बार-बार जन्म लेती है ? जीव को किस-किस गति में कैसे जाना, पड़ता है ? यह सब कुछ विस्तार से समझाने की कृपा कीजिये तभी मैं कुछ धर्म के बारे में सोच सकूगा।" ___यह सुनकर मुनिराज ने सोचा कि इस समय इस जीव के मिथ्यातत्व का उदय हो रहा है इसलिये इसके सात्विक भावो को जाग्रत करना चाहिये और इसे जीव के कर्म बन्धनों का रहस्य भली भाति समझाना चाहिये । इसी विचार से उन महात्मा ने नन्दीषेण को सब
आत्म-रहस्य इस प्रकार समझा दिये कि उसके हृदय मे किसी प्रकार की कोई शंका न रह गई । मुनि ने इस सम्बन्ध मे सुमित्रा और दो इभ्य पुत्रों की कथा सुनाकर उसके भावो को दृढ़ किया।
परलोक और धर्मफल प्रमाण में सुमित्रा की कथा वाराणसी नगरी मे हतशत्रु नामक राजा था। उसके सुमित्रा नामक - एक पुत्री थी। बचपन में एक बार वह मध्याह्नकाल मे भोजन कर सो रही थी, पानी से भीगे हुए खस के पंखे से दासिये उस पर हवा कर रही थीं कि शीतल जल के कणों के शरीर पर पड़ने से "नमो अरिहताण" कहती हुई वह सहसा जाग उठी।।
तब दासियों ने उससे पूछा कि-स्वामिनी । आपने जिस