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प्रद्युम्न कुमार
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करेगी ।" इतना कह कर उस ने तुरन्त विद्या दी और प्रयोग आदि की विधि बता कर बोली
"लो कुमार मैंने तुम्हारी मनोकामना पूर्ण कर दी अब आओ और मेरे व्याकुल मन को शांति प्रदान करने के लिए मेरे प्रेमी के रूप में शैया पर आ जाओ ।"
कुमार ने विद्याए लेते हुए सिर झुकाया और बोला माता । पहले ता तुम पोषक माता थीं किन्तु अब विद्याए देकर गुरु रूप में आ चुक हो मेरे साथ आप के दो गुरुत्तर पवित्र सम्बन्ध हो गये हैं फिर भला तुम ऐसी भोली बात करने लगी हो ।
"मां । पत्थर पर जोख लगाने की चेष्टा मत करो।" कुमार ने दृढ़ता से कहा ।
रानी कुमार के रंग ढंग देख कर समझ गई कि वह ठगी गई है । उस ने व्यर्थ ही कुमार से आशा बाध कर उसे विद्याए दीं । उसने आवेश में आकर कहा--"तुम अपने वचन से गिर रहे हो, कुमार !"
"कैसा वचन ? मैंने कोई वचन नहीं किया मैं कभी तुम्हारे पाप को सिर चढ़ाने को तैयार नहीं हुआ ।" कुमार ने उत्तर दिया ।
" अच्छा तो क्या तुम मुझे तडपती छोड दोगे ? " "मैं सत्य तथा धर्म का त्याग नहीं कर सकता ।"
रानी ने समझा कि सीधी उगली घी नहीं निकलेगा, उसने क्रुद्ध होकर कहा - "तो फिर यह भी सुन लो कि तुम्हारी हठ का भयकर परिणाम होगा ।"
"जो भी हो" इतना कह कर कुमार वहाँ से चला गया ।
रानी का षड्यन्त्र
रानी ने आवेश में आकर बदला लेने का उपाय सोचा और अपने वस्त्र फाड डाले, वाल वखेर लिए, मुह खोस लिया । विस्तर अस्तव्यस्त कर दिया और जोर जोर से चिल्लाने लगी। रोने पीटने की आवाज सुनते ही दास दासिया ढोड पड़े। इस दुर्दशा को देखकर नृप को सूचना दी गई । वह भी भागा हुआ आया और जब उस ने रानी की यह दशा देखी तो स्तब्ध रह गया । उस ने
पूछा - "क्या हुआ
"