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जैन महाभारत
विपिन में सैर करने के लिए गए। विपिन में एक तरु के नीचे मोरनी का अण्डा रक्खा था, सुन्दरी ने जिसके हाथ मे मेहन्दी लगी थी अडा उठा कर देखा । अण्डे पर उसके हाथ की मेहन्दी लग गई । जिससे उसके वर्ण और गन्ध में अन्तर आ गया । इसीलिए मोरनी अपने अण्डे को पहचान न पाई । और सोलह घड़ी तक वह अण्डा माता के बिना रहा । मारनी बड़ी शोक विह्वल थी। सोलह घड़ी उपरान्त वर्षा हुई जिससे अण्डा धुल गया और मोरनी उसे पहचान गई और अंडे को अपने पास रख लिया । यथा समय उस अण्डे से एक सुन्दर मयूर उत्पन्न हुआ। संयोग से इन्हीं दिनों लक्ष्मीवती भी एक दिन उद्यान में
आई । उसकी दृष्टि अनायास ही उस नवोत्पन्न मयूर पर पड़ी, मयूर की सुन्दर छवि को देख उसका मन उसके लेने को लालायित हो उठा। बलात् वह मयूरी को रोती बिलखती छोड़ उसे अपने घर ले आयी और एक मनोहर पिंजड़े मे बन्द कर दिया।
अब लक्ष्मीवती की यही दिन चर्या बन गई थी, कि प्रात. मध्याह्न सायं तीनों समय मयूर के लिए भाँति भॉति के रम्य पदार्थ लाना और उसे लिलाना । कभी २ उसे उड़ना और नाचना भी सिखाती । अनिश वह उसी कार्य में ही रत्त रहती। धीरे धीरे वह मयूर १६ मास का हो गया। अब वह इतना सुन्दर नृत्य करता कि जो एक धार उसके नृत्य को देख लेता उस पर प्राणपण से लेने को आतुर हो उठता। __ दूसरी ओर मयूरी (उस मयूर की मावा) उसके विरह में छटपटाती रहती, जहां जहां वह उड़कर बैठ जाती उसी स्थान को अपनी अश्रुधारा से भिगो देती, लोगो के भवनों पर बैठी आसु बहाती और के को कैको" का करुण क्रन्दन करती रहती। वह अपनी भाषा मे ही उसे बुलाती, उस समय उसका और कोई रक्षक नहीं था, उसके हृदय की विरह व्यथा को वही अनुभव करती या सर्वज्ञ ही जानते । हां, कुछ मानवतावादी लोग अवश्य इस बात का अनुभव कर रहे थे कि यह लक्ष्मीवती के योग्य कार्य नहीं था। ___एक दिन उन्होने मिलकर लक्ष्मीवती से कहा-पुत्री । यह मयूर तेरे लिए एक मनोरजन का स्थान बन गया है तथा कुछ पड़ौसियों प्रामवासियों के भी, किन्तु तनिक इस मयूरी की ओर भी देखो! यह ^स भांति अपने पुत्र के लिए बिलखती हुई घूम रही है। तुम्हें इस