________________
४६०
जैन महाभारत
"
इधर चन्द्रप्रभा यह सारा काण्ड गवाक्ष से देख रहीं थी । फिर भी पूछ बैठी क्या अपराध किया था उसने ?”
“उमने पर नारी का अपहरण किया था ।" नृप बोला । " फिर आप ने उसे क्या दण्ड दिया ?" " मृत्यु ।"
"तो क्या इतने से अपराध का इतना कठोर दण्ड
" चन्द्रप्रभा पूछ
उठी ।
"इसे तुम छोटा सा अपराध समझती हो । इस जघन्य अपराध का मृत्यु दण्ड भी थोडा ही है ।" नृप बोला ।
इन्दुप्रभा ने हाथ जोड़ कर कहा - " स्वामी । आप बुरा न मानें तो मैं कुछ पूछू ं ।'
"हां हां, अवश्य पूछो।"
"नाथ । इन साधारण नागरिको के पर नारी का अपहरण करने के अपराध का दण्ड देने वाले तो नृप है । पर नृपों के इसी अपराध का दण्ड देने वाला कौन है ? क्या उनका यह अपराध क्षम्य है ?" चन्द्राभा ने पूछा 1
:
नृप मौन रह गया। रानी फिर बोली - "या तो यह अपराध नहीं है, और यदि अपराध है तो इसका दण्ड भी उन्हे मिलना चाहिये। मैं आप से पूछती हॅू कि क्या आप का मुझ से विवाह हुआ था ? क्या आपने मेरा अपहरण नहीं किया ? आप के सम्बन्ध मे आप की प्रजा क्या सोचती होगी ? और यदि यह अपराधी ही आप को सम्बोधित करते हुए कह देता कि महाराज आपने स्वय भी तो ऐसा ही किया है तो आप को कैसा लगता है ? आप स्वय एक दुष्कृत्य किए बैठे हैं तो दूसरों को उसी दुष्कृत्य के लिए दण्डित करने का आप को क्या अधिकार है ? इसी समय कनकरथ भी प्रासाद के निकट ही चला आ रहा था, उस का रूप कुरूप हो चुका था । बालक उसे चिढ़ा रहे थे, से "चन्द्राभा चन्द्राभा" निकल रहा था ।
उस के
मुख
F
उसकी इस दयनीय दशा पर अनायास ही चन्द्राभा की दृष्टि उस पर जा पड़ी, देख कर उसे अत्यन्त दुःख हुआ, वह मन ही मन अपने को कोसने लगी- मैं बड़ी मन्दभागिनी हूँ, दुष्टा हूं, मेरे ही कारण इस की यह दुर्दशा हुई है, अन्यथा यह भी मेरी भाँति राजमहल मे होता । श्रह ओह ! मैं अन्तःपुर में राज्यसुख भोगू और मेरा पति दर दर की भीख रहे । धिक्कार हे मुझे और मेरे ऐश्वर्य को || "
4