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जैन महाभारत "नहीं, नहीं, तू भूलती है । मुनिवर मेरे लिए हो कह रहे थे।" सत्यभामा ने जोर देकर कहा। ___इस प्रकार दोनो उलझ गई। दोनों अपने अपने लिए ही मुनिजी की भविष्य वाणी मानती थीं दोनों निर्णय न कर सकीं कि मुनि ने किसके लिए कहा, प्रत्येक अपनी बात को ही सही जानती । आरिवर दोनों ने निर्णय किया कि हरि जी से पूछ लिया जाय, वे जो निर्णय दे वही दोनो स्वीकार कर लेंगी। वे श्री कृष्ण के पास पहुंची और सारी बात कह सुनाई, तथा उनसे यह निर्णय करने की प्रार्थना की कि मुनिवर की भविष्य वाणी उनमे से किसके लिए थी। श्री कृष्ण उन की बात सुन कर इस पड़े। बोले-"मेरी तो यही इच्छा है कि तुम दोनों ही पुत्र को जन्म दो । जाओ दोनो की कोख से ही पुत्र रत्न जन्म लेगे।"
दोनों प्रसन्न होकर चली आई ।
किन्तु सत्यभामा को इससे सन्तोष न था उसके मन में तो ईर्ष्या रुक्मणि के प्रति हर समय रहती थी। अतः उसने उसको दुख देने की भावना से कहा यदि मेरे पहले पुत्र होगा तो मैं दुर्योधन का दामाद बनाऊंगी और हम दोनों में से जिसके पुत्र का विवाह पहले हो उसी विवाह मे दर्भ के स्थान पर दूसरी अपने सिर के केश दे दे। बलराम श्री कृष्ण और दुर्योधन इस बात के साक्षी हों। __ इस प्रकार सत्यभामा ने कुटिलता पूर्वक रुक्मणि को ठगने के लिए जाल बिछाया और उनसे यह शर्ते जो पहले रक्खी थीं इसी रहस्य को लेकर कि मै आयु मे बड़ी हूँ, मेरा विवाह भी इससे पहले हुआ है अत मेरे ही पहिले पुत्र उत्पन्न होगा । जब पुत्र पहिले उत्पन्न होगा तो विवाह भी पहिले ही होगा । किन्तु सरल हृदय रुक्मणि इस बात को न समझ सकी क्योकि उसके मन मे भामा के प्रति कोई किसी प्रकार का विकार था ही नहीं, इसलिए उसने उसकी शर्तों को
आज्ञा रूप मानते हुए स्वीकार कर लिया कि यदि मेरे पुत्र पहिले उत्पन्न होगा तो दुर्योधन की पुत्री से विवाह करूंगी और यदि तुम्हारे (भामा) पुत्र का विवाह पहले हुवा तो मैं केश दे दूगी । इस प्रकार परस्पर शर्त तय हो गई और रुक्मणि के साक्षी श्री कृष्ण तथा सत्यभामा के बलराम और दुर्योधन साक्षी हो गये। सोतो की आपस की इस अटपटी