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रुक्मणि मंगल सत्यभामा श्री कृष्ण के इन वचनों को सुनकर बहुत लजाई । वह मन ही मन अपनी मूर्खता पर लज्जित हुई। उस पर सैंकडों घड़े पानी पड गया । क्योंकि वह समझ गई कि देवी, देवी नहीं, बल्कि रुक्मणि ही है । उसने अपने को सम्भालते हुए रुष्ट होकर कहा- 'आप को बहुत हसी सूझ रही है। राजा हो गए फिर भी रहे, ग्वाले के ग्वाले ही। ढोर चराये हैं, और ग्वालियों से ठिठोलिया की हैं, वही आदत अभी तक है । रुक्मणि दूर देश से आई है। मेरे लिए तो इसका आदर करना ही अच्छा है। अतिथि सत्कार में मैंने यदि इसके पैर भी छू लिए तो क्या हुआ ?"
"मैं कब कहता हु कि कुछ बुरी बात हो गई। मैं तो यही कहता हू कि इस देवी को प्रसन्न रखो तो तुम्हारी मनो कामना अवश्य ही पूरी हो।" श्री कृष्ण ने कहा ।
"तुम तो अटपटी बात ही करना जानते हो, कोई भली बात भी कहा करो। मैं अपनी बहिन के पैर लग भी ली तो कौन उपहास की बात हो गई ?" सत्यभामा ने तुनक कर कहा ।
उसी समय रुक्मणि ने उठकर सत्यभामा के पैर छुए । दोनों दो बहिनों की नाई गले मिलीं। सत्यभामा ने रुक्मणि के प्रति बड़ा प्रेम दर्शाया । कुशल क्षेम पूछा और अन्त में कहा कि बहिन तुम मेरे लिए बहिन समान हो मेरे रहते किसी प्रकार का कष्ट मत उठाना । कोई बात हो तो मुझ से कहना।
रुक्मणि ने भी इस प्रेम का समुचित उत्तर दिया वह बोली-"आप की दया की भूखी हूँ। आपको मै अपनी बड़ी बहिन मानती हू । आप की सेवा करना मेरा कर्तव्य है। आप मेरी त्रुटियों पर कभी ध्यान न द, उन के लिए मुझे सदा सावधान करती रहे।"
सत्यभामा उसे अपने महल में ले गई, वहा जाकर उसने रुक्मणि की बहुत खातिर की। अनेक भांति के मिष्ठान खिलाए । और उसके पोहर सम्बन्धी बातें मालूम की । विशेष सहानुभूति दर्शाई । उन दोनों का इस प्रकार प्रेम पूर्वक मिलना श्री कृष्ण के लिए बड़ा हर्ष दायक हुआ।
एक दिन नारद जी ने पाकर श्री कृष्ण से जाम्बवती की बहुत प्रशसा की। जाम्बवती, वैताढय गिरि के नप विष्वकसेन की जाम्बवान्