SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 493
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रुक्मणि मंगल सदृश रूपवती अन्य रानी कृष्ण के अन्त पुर हो। इस प्रकार श्री कृष्ण सत्यभामा के साथ रुक्मणि मिलन करवाने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर चले आये । और रुक्मणि को उन्होंने अनुपम वस्त्रों व आभूषणों से सजाया और +उपवन में ले जाकर एक अशोक तरु +यह कथा इस प्रकार भी आती है कि श्री कृष्ण ने श्री प्रासाद नामक महल जिसमें लक्ष्मी की एक सुन्दर मूर्ति थी उसे जीणों द्वार कराने के बहाने चतुर शिल्पियो को दे दी और प्रतिमा के रिक्त स्थान पर (वेदी मे) वस्त्रालकारों से सुसज्जित रुक्मरिण को बैठा दिया। और कह दिया कि सत्यभामा आदि रानिया तुम्हे जब देखने के लिए आवें तब तुम सर्वथा निश्चल हो जाना ताकि उन्हे यह न मालूम हो सके कि यह रुक्मरिण है । पश्चात सत्यभामा को प्रासाद में जाने को कहने चले गए। उनकी बात सुनकर सत्यभामा आदि रुक्मणि को देखने के लिए श्री प्रासाद में गयी। वहा जाकर पहले उन्होने लक्ष्मी देवी के दर्शन किये जो कि प्रासाद के प्रवेश द्वार पास ही थी। सत्यभामा ने वहा देवी के सामने नाना प्रकार की मनौतिया दी और बाद में प्रागे रुक्मरिण के पास चल दी । प्रसाद में वे रुक्मणि को ढूढती रही, महल का कौना २ देखा पर वह न पायी, पाती कहा से वह लक्ष्मो के स्थान पर बैठी थी अन्त में निराश हो वहा से लौट आयी आकर श्री कृष्ण से सारा वृत्तात सुनाया । इस पर वे हस पडे और उन्हें अपने साथ रुक्मणि के महल में ले आये । पहले जब सत्यभामादि अन्यान्य रानियां पाई तब तो रुक्मणि प्रस्तर प्रतिमा की भाति निश्चेष्ट बैठी रही पर इस बार श्री कृष्ण के आते ही वह वहा उठ खडी हुई और चरण वन्दन किया । पश्चात् श्री कृष्ण ने उन सब का परिचय दिया और प्रणाम करने को कहा । कृष्ण के कहने पर रुक्मणि प्रणाम करने लगी इतने में ही सत्यभामा ने उसे बीच में ही रोक दिया और कहने लगी--"नाथ 1 में अज्ञानवश इसे पहले प्रणाम कर चुकी हू प्रत अब मुझे प्रणाम करवाने का किंचित अधिकार नही है।" श्री कृष्ण ने हसते हुए कहा कि 'बहिन को यदि प्रणाम कर भी दिया जाय तो कोई हर्ज नहीं होता, कर्तव्य यही कहता है कि छोटे बडो को प्रणाम करें अर्थात् गुरुजन छोटो के वन्दनीय होते हैं।" श्री कृष्ण के ऐसे वचन सुनकर सत्यभामा पहले से भी अधिक ईर्ष्या में जलती हुई मुह मोडकर चली गई। त्रि०
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy