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जैन महाभारत
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समय रुक्मणि ने विनय पूर्वक कहा कि अब मेरे भाई को बधन मुक्त कर दीजिए ।
श्रीकृष्ण ने नागफांस निकाल ली। रुक्म ने अपने पास बैठी रुक्मणि को देखकर लज्जा से अपना मुह फेर लिया। पर रुक्मणि ने उसे सम्बोधित करके कहा - "तुम मेरे भाई हो, अब क्रोध को थूक दो । मैं अपने पति के घर जा रही हूँ । तुम मुझे लेने आना और घर की कुशलता के समाचार भेजते रहा करना । घर जाकर पिता जी, माता जी और बुआ जी, धाय माता से मेरा प्रणाम कहना | माता जी से मेरी ओर से क्षमा याचना करना क्योंकि मैं उन्हें बताये बिना ही चली आई हूं। और देखो भैया । किसी बात से रुष्ट न होना । मैं तुम्हारी छोटी बहन हूँ सदा तुम्हारी ओर आँख लगाये देखती रहूंगी। मुझे भूलना मत ।"
रुक्मणि की बात सुनकर रुक्म की आँखो में अश्र छलछला आये । वह सोचने लगा कि मैंने रुक्मणि का बलात् शिशुपाल के साथ विवाह करने का प्रयत्न किया फिर भी रुवमणि मुझ से तनिक भी रुष्ट नहीं, श्रीकृष्ण को मैं अपना बैरी समझता रहा पर उन्होंने मेरी हत्या नहीं की की। यह दोनों कितने अच्छे हैं । और मैं कितना नीच हॅू।" इस प्रकार की बातें सोच कर वह मन ही मन शर्माता था । उस ने घर लौटने की इच्छा प्रगट की, श्रीकृष्ण बोले- हां तुम चाहो तो सहर्ष वापिस जा सकते हो । पर देखो अब रिश्तेदारी हो गई है । पहले की बातों को भुला कर स्नेह को अपने हृदय में स्थान देना । मैं तो तुम्हें उसी दृष्टि से देखता हूँ जिस दृष्टि से किसी पुरुष को अपनी पत्नी के भाई को देखना चाहिएं । मेरे हृदय पर इस बात का तनिक भी प्रभाव नहीं कि तुम ने इस से पूर्व क्या किया ? पश्चात् बलराम जी ने भी रुक्म को आशीर्वाद दिया और स्नेह बनाए रखने की शिक्षा दी । उसे सवारी दी और वह पीछे लौट पड़ा । पर रास्ते में ही सोचने लगा कि मैं घर जा कर कैसे सूरत दिखाऊगा । लोग कहेंगे कि रुक्म कायर निकला उसने अपने जीते जी कृष्ण को रुक्मणि को बलात् उठाते हुए जाने दिया । लोग मेरा निरादर करेगे। मेरी वीरता की धाक उतर चुकी। मैं पिता जी व माता जी को कैसे मुह दिखाऊगा ? यह सोच कर उस का साहस न हुआ कि वह घर लौट सके अतः उस ने एक
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