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________________ रुक्मणि मंगल ४६७ टकराने लगे । कितने ही योद्धा श्रान की प्रान में यमलोक सिधारने लगे । श्रीकृष्ण की बारण वर्षा से रुक्म की सेना घबरा गई। रुक्म बारबार उनकी ओर बढता और श्रीकृष्ण के वाणों की ताव न लाकर पीछे हट जाता । तव रुक्मणि को सन्देह होने लगा कि कहीं कृष्ण के चारणों से उसका भाई ही न मारा जाय । जब कभी रुक्म सामने आता, रुक्मणि भय से काप उठती । उसे अपने भाई की बडी चिन्ता थी । उसने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की— हे यदुकुलकिरीट । मेरे लिए मेरे भाई - रुक्म की हत्या न करना अन्यथा यह मेरे शिर जीवन भर का कलंक लग जायेगा कि 'एक वहिन ने अपनी मनोकामना की सिद्धि के लिए‍ अपने भाई की बलि दे दी ।' श्रीकृष्ण ने कहा- तुम घवरात्रो मत, तुम्हारे भाई पर तीर नहीं चलाऊंगा । एक बार उसकी कितनी ही भारी उद्दण्डता का भी क्षमा कर दूंगा।" श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर रुक्मणि को बहुत सन्तोष हुआ । दूसरी ओर बलराम ने शिशुपाल का सम्बोधित करके कहा - "जा भाग जा । मैं तुझ पर हाथ नहीं उठाऊ गा । श्रीकृष्ण ने तेरी माता को निन्यानवे अपराध क्षमा करने का वायदा किया है। पर तेरी सेना के किसी भी व्यक्ति के सामने आने पर उसे जीवित नहीं छोडू गा ।" श्रीकृष्ण ने रुक्म + को नागफास में वॉधकर रथ पर डाल लिया । इस घमासान युद्ध के बाद शिशुपाल की सेना के पैर उखड़ गए और वह परास्त होकर स्वय भी अपनी सेना के साथ भाग खडा हुआ । श्रीकृष्ण और बलराम विजय का डंका बजाते विजयपताका फहराते द्वारिका की ओर चल पडे । चाहते तो इस युद्ध में शिशुपाल और रुक्म का वध कर सकते थे पर रुक्म को रुक्मणि के कारण और शिशुपाल को उसकी माता को दिए वचन के कारण उन्होंने जीवित छोड दिया था । एक नदी पर आकर दोनों भ्राताओं ने हाथ पाँव धोए। उसी 4 + ऐसा भी वर्णन मिलता है कि वलराम ने युद्ध में रुक्म के 'क्षुरप्रवारण' छोड कर सिर के केश उडा दिये थे जिससे कि उसका सिर रुण्डमुण्ड छा गया और पश्चात् यह कह कर छोड़ दिया कि 'तू मेरे भाई की पत्नी का भाई है अत. अवघ्य है श्रन्यथा यमघाम पहुँचा देता । तेरे लिये इतना ही दण्ड भषिक है । जा यहाँ से चला जा 2 विशष्ठि * ✓ j د .
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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