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रुक्मणि मंगल
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सत्यभामा अपने शृगार में लगी थी। वह अपना चन्द्र समान कान्तिवान, लावण्यमयी मुख मण्डल को दर्पण में देख रही थी। उसी समय नारद जी श्रीकृष्ण के साथ वहाँ पहुंच गए। वह शृङ्गार में एकाग्रचित होकर लगी थी, बल्कि पूर्णतया तन्मय थो । उसे पता ही नहीं चला कि कोई उसके निकट आ गया है। नारद जी ने जो दूसरी ओर मुह किए खडी मत्यभामा के दर्शन दर्पण मे करने का प्रयत्न करने के लिए आगे झुक कर देखा तो दर्पण में उनका भी मुख चमकने लगा। सत्यभामा जो अभी तक अपने रूप पर स्वय ही मोहित हो रही थी, नारद जी के प्रतिविम्ब को देखकर चकित रह गई और हठात् उसके मुह से निकल गया-हैं। यह कौन राहू आगया यहाँ ?"
नारद जी अपने लिए राहू की उपमा सुनकर चिढ़ गए । उनका मुह पिचक गया, बडी हास्यास्पद सूरत हो गई उनकी । दर्पण में इस भयानकता को देखकर सत्यभामा ने कहा- "अरे, यह लम्बी तनी हुई खड़ी चोटी, खोपडी सफाचट, पिचका हुश्रा चेहरा, कुटिल नेत्र, बढी हुई छुट्टी, राक्षस रूप मेरे दर्पण में कहाँ से उतर आया ?"
ओर फिर पीछे देखा, सामने खड़े पाये नारद जी । वह उन्हें देख कर खिल खिलाकर हस पडी । इतने जोर से हसी कि श्रीकृष्ण के सकेत करने पर भी वह अपनी हसी न रोक पाई। नारद जी समझ गए कि मत्यभामा मेरो सूरत पर ही इस रही है। उन्हें बहुत क्रोध आया और वे तुरन्त यहाँ से चले आये । उन्हे तो आशा थी कि सत्यभामा उनका हार्दिक अभिनन्दन करेगी, पर हुआ उल्टा ही, उसने तनिक सा भी प्रादर न किया, वे क्रद्ध ये ओर उससे प्रतिशाध लेने के उपाय सोचने लगे। पर श्रीकृष्ण के रहते मत्यभामा को किसी प्रकार का भी कष्ट पहुचाना नारद जी के यम की बात न थी। वरना मन्तान आदि काही दुख वे किसी प्रकार दे डालते, परन्तु श्रीकृष्ण जैसे पुण्यवान के मामने भला नारद जी की क्या चलतो? अतएव वे मोचने लगे कि कोई ऐसा उपाय किया जाय कि जिय प्रकार सत्यभामा के व्यवहार के पारण मुझे दुरय हो रहा है, इमी प्रकार वह भी मन ही मन कुढती रहे, दुखी रहे । पात युद्ध मोचने पर वे इम परिणाम पर पहुँचे कि नारी फो मर्याधिक दुख मोकन के कारण पहुचता है। श्रतएव यदि सत्यभामा के साय पीकृष्ण के प्रेम का विभाजन करने वाली कोई और नारी कृष्ण