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हरिवश की उत्पत्ति -rrrrrrrr
किन्तु किसी पूर्व जन्म के अभी उनके शुभ कर्म शेष थे, इसलिये महाराज हरि ने अपने मुजवल से समस्त नृपगणो को अपने वश में करके अखण्ड भूमण्डल पर न्याय पूर्वक शासन करना प्रारम्भ कर दिया । चम्पापुरी नगरी के महाराजा और महारानी के रुप में हरि हरिणी भोग-विलासमय जीवन बीताने लगे। यही महाराज हरिवश के प्रथम नरेश थे। और इन्हीं से यह वश हरिवश कहलाया। इसी हरिवंश में आगे चलकर यदु, वसुदेव, श्रीकृष्ण, भगवान् अरिष्टनेमी या नमीनाथ आदि परमप्रतापी राजा महाराजा, वासुदेव, बलदेव तथा साक्षात् भगवान् तीथङ्करो ने जन्म लिया । यह हरिवश भारत के महान यशस्वी वश के रूप में विख्यात है।
कुछ समय बीतने के पश्चात इस दम्पति के अश्व नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। यह प्रश्व वस्तुतः सिंह के समान पराक्रमी बालक था। उसने अपने तेज से कुछ ही वर्षा मे सारी पृथ्वी के शासकों पर अपनी धाक जमा दी, और देखते ही देखते युवराज पद पर अभिषिक्त होकर अपने अलोकिक कार्यो के द्वारा सारे ससार को चकित कर दिया।
हरि वश के आदि पुरुप महाराज अश्व के माता-पिता हरिणी और हरि किल्विष देव के प्रभाव से तामसिक वृत्ति के हो गये थे और जैसा कि पहले कहा गया मद्य-मांस आदि तामसिक पदार्थो का सेवन करने लगे थे। वस्तुतः इस मद्य-मास प्रचार आदि के परिणाम स्वरूप हरि और हरिणी इन युगलियो को अगले भव मे नरक जाना पड़ा।
शास्त्र में नरकगति के चार कारण बताये गये हैं जैसे कि१ महोरम्भ २. महापरिग्रह ३ पचेन्द्रियवध ४ कुणमाहार ।
अर्थ-१ अपने स्वार्थपूर्ति के हेतु न्यायान्याय न देखते हुए अतिमात्रा में प्राणी-हिंसा करना।
२ अनीतिपूर्वक धन प्रादि का मचय करना तथा उस पर ममत्व चुद्धि रखना अर्थात उसमें आसक्त रहना ।
३ पाच इन्द्रियों वाले पशु-पक्षी आदि जीव को मारना । ४ मदिरा-मास अडा आदि कुत्सित भोजन करना ।
उपरोक्त प्रवृत्ति वाला प्राणी अपने जीवन को नारकीय बना लेता है अत: इनसे सर्वधा दूर ही रहना चाहिये ।