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जैन महाभारत
जो सिद्ध कर दे कि भील युवक भी विद्या के लिए सुमात्र हो सकते है, वे गुरु के लिए त्याग भी करना जानते हैं, और पापो का प्रायश्चित भी। आज बुद्धि को परीक्षा ही नहीं, गुरु भक्ति, श्रद्धा, त्याग और साहस की भी परीक्षा है । इतना सोच कर उसने अपनी हर उस वस्तु पर गहरी दृष्टि डाली जो उसकी अपनी थी जिसे देने का उसे अधिकार था और वह कितनी ही देर विचार मग्न रहा ।
"बोलो ! एकलव्य क्या देते हो।' द्रोणाचाय ने कुछ देर बाद कहा।
एकलव्य ने निश्चय किया और कहा, "गुरुदेव ! ऐसा लगत है कि यह अवसर मेरे जीवन का एक विशेष अवसर है। आज मैं अपने गुरुदेव को ऐसी वस्तु दूंगा जो आज तक विश्व मे किसी ने ना दी हो । उस वस्तु के देने के तीन कारण हैं। १. मै प्रायश्चित करना चाहता हूं । २. मैं वीर अर्जुन को शस्त्र विद्या में अद्वितीय देखना चाहता हूं, क्योंकि उसमे वे सभी गुण हैं जो इस पवित्र विद्या में अद्वितीय वीर में होने चाहिये। मेरे एक ही दोष के कारण मुझे यह पदवी शोभा नहीं देती, दूसरे वह मेरा गुरु भाई है। मैं गुरु भाई के स्नेह क्षेत्र मे एक नया उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता हूं। ३. मैं अपने गुरुदेव को दृढ़ विश्वास दिलाना चाहता हूं कि भविष्य में इस पवित्र विद्या को मैं जीव हत्या में प्रयोग न करूगा। यह शपथ द्वारा नहीं वरन् अपनी गुरु दक्षिणा द्वारा विश्वास दिलाया जायेगा।
द्रोणाचार्य भी एकलव्य की बात सुन कर चकित रह गए। वे सोचने लगे "भला वह कौन सी वस्तु यह मुझे दक्षिणा में दे रहा है, __ जो इन तीन उद्देश्यों की पूर्ति करती हो।" पर उन की भी समझ में । उस समय न आया कि एकलव्य ने कौन सी वस्तु दक्षिणा के लिए चुनी है। एकलव्य ने तुरन्त एक कटार ली और अपने दाये हाथ के अंगूठे को