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जैन महाभारत
वश में नहीं है, अत ऐसी परिस्थिति में जैसे भी हो, तुम्हें कोई उचित उपाय ढूढ निकालना चाहिए।
राजा की ऐसी कातर वाणी सुन पहले तो सुमति चकित हो किंकर्तव्य विमूढ़ सा रह गया,पर फिर वह तत्काल कुछ सोचकर बोलामहाराज | मैं जानता हूँ, जिसने आपके हृदय का हरण किया है उस परम सुन्दरी का नाम वनमाला है और वह वीरक नामक कुविन्द की भार्या है.। इसलिए आपका और उसका मिलन किसी भी प्रकार न्यायोचित नहीं है, परनारी की कामना करना भी मनुष्य के लिए नरक में पतन का कारण है, अतः आप मेरी बात मानिये और उस कामिनी के रूप के आभाजाल को तोड़ डालिए। आपके महलों में एक से एक बढ़कर सुन्दरी रानियाँ विद्यमान हैं, आप उन्हीं के साथ धर्मानुकूल जीवन यापन कर श्रेय और प्रेय की प्राप्ति के अधिकारी बनिये । इस नश्वर रूप के मोह में पड़कर अपने आपको पतन के मार्ग पर ले जाना विवेकी पुरुष के लिए कदापि शोभाजनक नहीं।
इस प्रकार मन्त्री ने राजा को अनेक प्रकार समझाया-बुझाया, पर कामान्ध व्यक्ति कब किस की सुनता है, क्योकि उसके हृदय से भय
और शर्म तो कूच कर जाती है इसीलिए कहा है-“कामातुराणा न . भय न लज्जा” अतः उसने तो वनमाला को पाने के लिए प्रण ही कर लिया।
आखिर राजहठ पूरा होकर रहा, किसी न किसी प्रकार वनमाला राज महलों मे पहुँच गई । क्योकि वनमाला का हृदय स्वय राजा सुमुख के प्रति आकर्पित हो चुका था इसलिए उसने भी नृप के प्रणय निवेदन को अनायास ही स्वीकार कर लिया। अब क्या था राजा ने तत्काल उसे अपनी पटरानी बना लिया और दोनो आनन्दोपभोग करते हुए स्वछन्दतापूर्वक समय यापन करन लगे। उनके वैभव विलास और रग-रलियो ने दिनोंदिन रग पकड़ना शुरू किया । वह देवेन्द्र के समान सुखोपभोग करता हुआ राज्य करने लगा।
वीरक कुविन्द का तपस्या द्वारा देवलोक गमन उधर अपनी प्राण-प्रिया पत्नी के विरह के कारण वीरक अत्यन्त शोक-सतप्त रहने लगा । रात-दिन उसकी आँखों के सामने वनमाला ही खड़ी दिखाई देती । वनमाला की वियोगाग्नि अव उसके लिए प्रायदा हो सती. किन्त अन्त मे एक दिन सौभाग्य से उसे किसी मुनि