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________________ ३०२ जैन महाभारत mmm mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm खेचर ने उनका परिचय पूछा । उसे यह जान कर और भी प्रशसा हुई कि उसकी सेवा करने वाला पाण्डू नृप है । उसने वह अगूठी और दो जडी औषधि उन्हे दी। वे दोनो जड़ियाँ, घाव मिटाने और रूप बदलने के काम आती थीं । नप ने खेचर को सहस्त्र बार धन्यवाद दिया । + + + + कुन्ती निश्चय कर चुकी थी कि या तो पाण्डू के साथ विवाह होगा अथवा वह अविवाहित रहेगी। पाण्डव नप के दर्शन करने के लिए वह तड़फती रहती । पर उसे कोई उपाय नहीं मिला । एक दिन उद्यान में मन बहलाने जा पहुंची। वहां विभिन्न पुष्पों को देखकर मन बहलाने के स्थान पर और भी व्याकुल हो गया, वह चारो ओर पाण्डू को ही देखती । “ओह इस समय यदि कहीं से पाण्डू आ जाएं तो कितना अच्छा हो धीरे कही हुई बात भी दासी के कान में पड़ गई वह बोली 'राजकुमारी आप ने महाराज की बात नहीं सुनी । वे कह रहे थे कि पता चला है पाण्डू नृप को पाण्डू रोग है अतः कुन्ती का उनसे विवाह नहीं किया जायेगा। कुन्ती के हृदय पर भयंकर वज्रापात हुआ। अवरुद्ध कण्ठ से पूछा "तू ने कब सुना? "कल ही तो महाराज धतराष्ट्र का सन्देश आया था, उन्होंने पाण्डू के लिए आपको मांगा था, पर महाराज महारानी जी से कह रहे थे कि हम कुन्ती का विवाह रोगी से नहीं कर सकते ? । दासी की बात सुन कर कुन्ती के नयनो से अविरल अश्रधारा फूट निकली। उसने अपने हृदय मे कहा कि बस अब एक ही रास्ता है कि मै अपने जीवन का अत कर डालू । पाण्डू रोगी भी हों, पर वे मेरे पति हैं, मैं उन्हें एक बार हृदय से स्वीकार कर चुकी हूं। और क्षत्राणि एक ही बार अपना पति चुनती हैं जिसे एक बार हृदय से स्वीकार कर लेती है, उसी के साथ जीवन पर्यन्त निभाती हैं। इस समय पाण्डू के अतिरिक्त अन्य सभी पुरुष मेरे भ्राता व पिता के समान है" । कुन्ती ने ऊपर की ओर देखा और सोचने लगी बस इसकी डाल । में रस्सी डाल कर मैं अपना जीवन समाप्त कर सकती हूँ। पर आत्म १
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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