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जैन महाभारत उपस्थित सभी सम्भ्रान्त पुरुषो राजा महाराजाओ का घोर अपमान हुआ है । अत पर उपस्थित नृपगणों को चाहिए कि वे अपने इस अपमान की उपक्षा न करें, क्योकि यदि इस समय अपराधी को पूरापूरा परिचय न दिया गया और उपेक्षा कर दी गई तो समस्त ससार मे इस ही प्रकार के अनुचित और अन्याय पूर्ण कार्य होने लगेंगे। इस स्वयवर सभा में बडे-बड़े कुलीन राजा महाराजाओं की उपस्थिति। इस अकुलीन को राज कन्या अपनाने का क्या अधिकार है ?
कौशला नगरी का दन्तवक राजा तो वसुदेव के गले मे जयमाला पडते ही भयंकर आग बबूला हो उठा। वह रुधिर राना की भत्सेना करते हुए कहने लगा कि यदि तुम्हे अपनी पुत्री एक बाजे बजाने वाले के हाथों ही सौपनी थी तो तुम्हे इन सैकडों बड़े-बड़े राजामहाराजाओ को निमन्त्रित कर यहाँ पर पहुँचने का कष्ट ही क्यों दिया। बालिका अपने भोलेपन या अज्ञान के कारण बाहरी रूप रग को देख कर किसी बाजे वाले पर आकर्षित हो सकती है किन्तु पिता को तो उचित-अनुचित कर्तव्य समझाने का सदा अधिकार है । जो पिता इसकी उपेक्षा करता है वह अपनी सन्तान का मित्र नहीं पूरापूरा शत्रु है । इस लिए आपको अपनी सन्तान के प्रति इस उत्तरदायित्व से बच कर भाग निकलने का प्रयत्न कदापि नहीं करना चाहिए । अब भी समय है कि आप अपनी बेटी को समझावे कि वह हम लोगो में से किसी का वरण कर स्वयवर सभा की मर्यादा की रक्षा कर ले । अन्यथा इसका दुष्परिणाम सब को भुगतना पड़ेगा।
इस पर रुधिर राजा ने उत्तर दिया कि--
हे राजन् । तुम्हारे इस प्रकार के वचनों से मैं अपनी कन्या के स्वयवर में बाधक नहीं हो सकता । स्वयवर में तो कन्या स्वेच्छानुसार जिस का वरण कर ले वही उसका वर होता है । स्वयतर का यह सिद्धान्त अनादि काल से प्रचलित है।
यह सुन एक दूसरा राजा बोल उठा कि हे महाराज यद्यपि आपका कथन न्यायपूर्ण है तथापि वर के कुल शील का ज्ञान हुए बिनाह म कभी स्वयंवर को मान्यता नहीं देवेगे। यदि वह अपना कुल न बतलाये तो अभी इससे राजकन्या को छीन लेना चाहिये ।
राजाओ को इस प्रकार आपस में कोलाहल तथा लड़ते झगडते