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* सातवां परिच्छेद *
- रोहिणी स्वयंवर भरतक्षेत्र में जम्यूद्वीप के मध्य में स्थित नगराज सुमेरू के नन्दन वन
के मान को मदेन करने वाला अरिष्टपुर नामक अत्यन्त सुन्दर नगर था। जिसके अधिपति महाराजा रुधिर थे। उनके मित्र देवी अग्रमहिषी थी। उसके नीलात्पल सदृश्य छवि वाली रोहिणी नामक रूपवती कन्या थी।
रोहिणी के युवा हो जाने पर महाराजा रुधिर ने उसके लिये स्वयंवर का आयोजन किया। जिसकी सूचना भरतक्षेत्र के सभी राजामहाराजाओं को दे दी गई। तदनुसार स्वयंवर में भाग लेने को सभी नरपति अपनी-अपनी राजधानियों से चल पड़े। उधर वसुदेव भी कंचनपुर से अपनी प्रिया ललितश्री को बिना सूचित किये ही एक दिन वे पहले कि भॉति निकल पडे। मार्ग मे उन्हे कौसल जनपद पाया, वहाँ उनकी एक देव से भेट हुई। देव ने उनको बताया कि अरिष्टपुर मे राजकुमारी रोहणी का स्वयवर हो रहा है अतः तुम्हे वहाँ वेणुवादक के स्प में जाना चाहिये। वहाँ जाकर जब तुम स्वयवर मे वेणु वजारोगे तो तुम्हारी वेणु की ध्वनि से तुम्हे पहचान कर रोहिणी तुम्हारे गले में वर माला डाल देगी।
देव के कथनानुसार वसुदेव चलते-चलते अरिष्टपुर जा पहुंचे। वहा देश कि सचमुच ही उस स्वयवर में भाग लेने के लिये जरासन्ध आदि बडे बड़े महाराजा उपस्थित हैं तथा वे सब लोग यथा समय मुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूपणो से सुसज्जित होकर स्वयवर मण्डप मे अपने अपने नियत थाम्नी पर आ बैठे। वसुदेवकुमार उन राजाओं के बीच में न वैठ अन्य वादको के साथ वेणु वाद्य हाथ में लिये हुये