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वसुदेव के अद्भुत चातुय ज्ञान का सशय होने लगता है । जेस मकडो अपने ही द्वारा उत्पन्न तन्तुओं के जाले में स्वय आबद्ध हो जाती है । उन आत्मा के ज्ञाना वर्णीय आदि कर्मो के क्षयापशम से देशज्ञता-मत्यादि ज्ञान उत्पन्न होता है । ज्ञानावर्णीय के क्षय से सर्वज्ञता प्राप्त होती है और वे सिद्ध कहलाते हैं । जो कर्म रहित हो गये हैं उन्हें विपरीत प्रत्यय कभी नहीं होता। एक देश को अर्थात् ज्ञान के एक अश विशेष के जानने वालों से सर्वज्ञ विशेष हाते हैं। क्योंकि उन्हें सम्पूर्ण ज्ञान होता है। जिस प्रकार लाख के कबूतर आदि द्रव्यों में ऊ चाई और व्यास आदि सामान्य धर्म है । किन्तु कृष्णत्व, स्थिरत्व, चित्रत्व (रग) आदि विशेष धर्म हैं, उनके सम्बन्ध में यदि आंखें कम देखती हो तो अथवा प्रकाश मन्द हो तो सशय या विपरीत प्रत्यय हो जाता है। इसलिए आपका यह मोक्ष का उपदेश शुद्ध नहीं है। रागद्वेष से अभिभूत और विषय सुख की अभिलाषा वाला यह जीव जिस प्रकार दीपक तेल ग्रहण करता करता रहता उसी प्रकार कर्मो को ग्रहण करता है । कर्गो से ही ससार उत्पन्न होता है वैराग्य मार्ग में चलने वाले लघु कर्मी ज्ञानी सयमी आश्रव को रोक कर तथा तप के द्वारा घातिक (या) और अघातिक (या) कर्मों के क्षय करने पर जीव को निर्वाण की प्राप्ति होती है। यही सक्षेप में जीव और कर्म का सिद्धान्त है। __इस प्रकार के वचनो से सतुष्ट हुए परिव्राजक ने वसुदेव से कहा कि आप मेरे मठ में पधारिये और वहीं विश्राम कीजिए । वहाँ पहुचने पर परिव्राजक के उपस्थित भक्तों ने विद्वान और शास्त्रज्ञ जानकर उनका खूब स्वागत सत्कार किया।
ललित श्री से विवाह भोजन के पश्चात् उस साधु ने कहा कि
हे महाभाग मैं सब लोगो का विशेषतः गुणवानों का मित्र हूँ। इसीलिए लोग मुझे सुमित्र कहते है। मैं इस समय आपको एक भिक्षुक धर्म के विरुद्ध वात कहने जा रहा हूँ, वह यह कि स्त्रियों के सर्व श्रेष्ठ गुणों से समन्वित हंसगामिनी मृदुभाषणी, कुल वधुओं के समान पवित्र आचरण वाली, गणिका पुत्री ललित श्री के सम्बन्ध में नैमित्यिको ने कहा है कि वह किसी बहुत बडे महाराज की भाया बनेगी। पर वह ललित श्री पुरुषों से बहुत घृणा करती है, पदिन