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कनकवती परिणय
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से वे दोनों को आहत ही दयाद्री
परोपकारी और स्वभाव से ही दया हृदय थे ही इसलिये उन्होंने इस दम्पत्ति को आहत धर्म का उपदेश दिया। इस उपदेश के प्रभाव से वे दोनों राजा रानी कुछ धर्म कार्यों में रुचि लेने लगे। इस प्रकार कर्म रोग से पीड़ित उन दोनों को धर्म ज्ञान रूपी महौषधि प्रदान कर मुनिराज अष्टापद की ओर चल पडे । अब तो वे दोनों श्रावक व्रत ग्रहण कर कृपण के धन की भांति उस व्रत का बडी सावधानी से पालन करने लगे।
इस प्रकार धर्म में उत्तरोत्तर श्रद्धा बढाने के कारण राजा रानी में पारस्परिक प्रम भी बढ़ने लगा। कुछ दिनों पश्चात् आयु के समाप्त होने पर समाधि मरण ग्रहण कर उन दोनो ने शरीर त्याग दिये। और वहां से, वह दम्पत्ति देव लोक मे जाकर देव और देवी बन गये।
कनकवती का तीसरा भव देव लोक से च्युत होने पर मम्मन का जीव बहेली देश के पोतनपुर नामक नगर में एक धमिल्ल नामक गोपालक के यहाँ उसकी पत्नी रेणु के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । उस बडे पुण्य आत्मा का वहां पर धन्य नाम रखा गया ।
उधर वीरमती का जीव देव लोक से च्युत होकर एक कन्या के रूप में उत्पन्न हुआ और वह धूसरी के नाम से पुकारी जाने लगी। कुछ दिनों पश्चात् धन्य और धूसरी का विवाह हो गया। धन्य जगल में प्रति दिन भेसे चराने जाया करता था। एक बार वर्षा ऋतु में वर्षा की भयकर झड़ी लगी हुई थी, आकाश बादलों से ढका हुआ था, रह रह कर कड़ती हुई बिजली चमकती रही थी । धरती कीचड़ से भर गई थी। इस घुटनों तक बढ़े हुवे कीचड़ के कारण चलने फिरने वालों को बड़ा कष्ट होता था। ऐसे समय कोई भी अपने घर से बाहर नहीं निकलना चाहता था।
किन्तु धन्य तो ऐसे समय में भी अपने सिर पर वर्षा जल को रोकने के लिए एक छाता लगा कर भैसों को वन में चराने के लिए निकल पडा, क्योंकि कीचड़ में लेटने और चलने फिरने से भैसें तो बहुत आनन्द मनाती हैं । इस प्रकार दलदल में घुसती हुई भर्से जगल में जिधर जिधर निकल जाती वह भी उनके पीछे पीछे चलता रहता।