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जैन महाभारत . . दूर ही दूर रहती हुई "हाय स्वामी मारे जा रहे हैं । इस प्रकार शोक करती हुई उसके नीचे चलती रही । मैने विद्या के वल से मानस वेग का रूप धारण कर लिया। मुझे मानस सम्झकर सूर्पणखां आपको पटक कर मेरे पीछे दौड़ पड़ी । मैंने बड़ी कठिनाई से उससे अपना पीछा छुड़ाया । फिर आपको ढूढ़ने के लिये में निकल पड़ी । ढूढती-ढूढती तथा आपका अनुसरण करती हुई इधर-उधर भटकने लगी। तब मुझे आकाश वाणी सुनाई दी कि “यह तेरा पति छिन्नकटक पर्वत से नीचे गिर रहा है। इसलिये शोक त्याग कर उसे बचा।" यह सुनकर तत्काल मै यहाँ पहुंची और आपकी भसरा को पकड़ कर आपको बचा लाई । हे नाथ ! आज से अब मेरी विद्या का प्रभाव नहीं रहेगा । क्योंकि इस ओर आती हुई मैं एक श्रमण के ऊपर से चली आई थी। विद्याधरों की विद्याओं का नियम है कि यदि वे किसी श्रमण तपस्वी आदि के ऊपर से उल्लंघन करेगे तो उनकी विद्याए नष्ट हो जायेंगी। ___ यहाँ से चलकर वसुदेव और वेगवती पचनद संगम के पास एक आश्रम में आ पहुचे । यहां आते आते वेगवती मानवी स्त्रियों के समान भूचरी हो गई। उसकी सब विद्याएं लुप्त हो गई। उन दोनों ने वहा पर विद्यमान सिद्ध को प्रणाम कर तथा फल आदि का आहार कर आगे चलने की तैयारी की । मार्ग में उन लोगों को देखकर ऋषियों ने कहा कि अरे य दम्पति तो कोई देव-मिथुन प्रतीत होते हैं । जो कुतूहल वश भू लोक को देखने के लिए स्वर्ग से यहां उतर आये है । थोड़ी दूर चलने के पश्चात् वे लोग वरुणोदका नदी के तट पर
अवस्थित ऋषियों के आश्रम में जा पहुंचे। __यहाँ पहुंच कर वसुदेव ने वेगवती से कहा कि तुम्हें विद्या भ्रष्ट हो जाने की कोई चिन्ता नहीं करनी करनी चाहिये । क्योंकि हमे यहाँ किसी प्रकार का कोई प्रभाव नहीं हैं। इस पर उसने कहा, "अपने प्राणेश्वर के प्राणों की रक्षा करते हुए विद्या से भ्रष्ट हो जाने पर भी मुझे बड़े भारी गौरव का ही अनुभव हो रहा है।"
बालचन्द्रा की प्राप्ति वसुदेव और वेगवती इस प्रकार परस्पर प्रेमालाप करते हुये एक बार वन में विहार कर रहे थे कि उन्होंने एक बडा भारी आश्चर्यजनक दृश्य देखा । उस वन के मध्य भाग में कोई अत्यन्त सुन्दरी कुमारी