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________________ * सातवां परिच्छेद * मदनवेगा परिणय एक बार जब वसुदेव अपनी पत्नी के साथ सुख पूर्वक सो रहे थे तो तुम्हे ऐसा अनुभव होने लगा कि मानो कोई आकाशगामी पुरुष उन्हे उठाये लिए जा रहा है। थोड़ी ही देर के बाद उन्होंने जान लिया कि यह तो दुष्ट मानसवेग उन्हें मार डालने के लिए ले जा रहा है। तब उन्होंने निश्चय किया कि मरना तो है ही पर इसे मार कर क्यो न मरू ं । इसलिए उन्होंने उसकी छाती में ऐसे जोर से मुक्का चलाया कि वह तिलमिला उठा, और उसने घबराकर वसुदेव को नीचे फेंक दिया दैवयोग से उस समय नीचे कोई पुरुष गंगा की धारा में खड़ा हुआ तपकर रहा था वे उसके कधों पर ऐसे जा बैठे, जैसे कोई घोड़े पर जा बैठता है । वसुदेव के उसके कधे पर गिरते ही उसकी विद्या सिद्ध हो गई, इसलिए प्रसन्न हो उसने पूछा आपके दर्शनों से मेरी विद्या सिद्ध हो गई है इसलिए मै आप पर बहुत प्रसन्न हूं, बतलाइये मैं आपका क्या प्रत्युपकार करू ? साथ ही वसुदेव के पूछने पर उसने यह भी बतलाया कि यह स्थान कनखलपुर नाम से विख्यात है । उस विद्याधर के बहुत आग्रह करने पर वसुदेव ने कहा कि यदि आप मुझ पर वास्तव में प्रसन्न हैं तो मुझे आकाशगामिनी विद्या दे दीजिए । विद्याधर ने उत्तर दिया यदि तुम में पुरश्चर्ण करने की सहनशक्ति है तो किसी अन्य स्थान पर चलकर मैं तुमको मत्र की दीक्षा देता हूं तुम वहाँ पर एकाग्र चित्त से विद्या का स्मरण करते हुए अपना आसन जमा लेना । यह कहकर वह उन्हे दूसरे स्थान पर ले गया वहाँ जाकर उसने समझाया कि यहाँ पर अनेक प्रकार के विघ्न उत्पन्न होते हैं। विघ्न करने वाले देवता स्त्रीका रूप धारण कर अनेक प्रकार के हाव भावों
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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