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________________ १४० जन महाभारत वसुदेव के इस प्रकार आश्वासन दिलाने पर गधर्वसेना के मन का विकार दूर हो गया। किन्तु थोडी ही देर पश्चात एकवद्धा मातग सुन्दरी वसुदेव के पास आ पहुची और कहने लगी कि-बेटा वह मातग सुन्दरी जिसने अपनी कला का प्रदर्शन कर तुम्हारे मन को मोहित किया है, मैं उसी की माता हूं। मैं जानती हूँ कि तुमने मेरी पुत्री के हृदय को हर लिया है। इसलिए अच्छा है कि तुम उसे स्वीकार कर लो।' इस प्रस्ताव को सुनकर वसुदेव अत्यन्त चकित हुए और कहने लगे कि "हे माता विवाह आदि सम्बन्ध समान कुल, शील और वय वालों मे ही श्रेष्ठ समझ जाते है। असमान कुल गोत्रों के पारस्परिक सम्बन्धों को कोई अच्छा नहीं कहता। इस लिये आप मुझे क्षमा करे । मैं आपके इस प्रस्ताव को स्वीकार करने मे सर्वथा असमर्थ हूँ। __यह सुन मातग वृद्धा ने उत्तर दिया कि 'बेटा तुम्हे हमारे कुल शील के सम्बन्ध मे कुछ सन्देह नहीं करना चाहिये । यदि तुम कुल सम्बन्ध में जानना ही चाहते हो तो सुनो हे कुमार । इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र मे वनिता नासक एक अत्यन्त रमणीय नगरी थी। वहां आदि पुरुष सहाराज ऋषभदेव का शासन था। उन्होंने अपने शासन में असि-खड्ग विधि, मास-लेखन विधि, कसि-कृषि कर्म तथा बहत्तर कला पुरुषों की, चौसठ कला स्त्रियों की तथा एक सौ प्रकार का शिल्प कर्म इत्यादि कार्यों के उत्पादन व सम्पादन की समुचित व्यवस्था की थी। उससे पहले यह भरतक्षेत्र (भारत) अकम भूमिक्षत्र रहा था, जिस में मनुष्य कर्मण्य अर्थात् पुरुषार्थ हीन जीवन व्यतीत करता था, मात्र उसके जीवन का आधार प्रकृति प्रदत्त वृक्ष थ जिन्हे शास्त्रीय भाषा मे कल्पवृक्ष कहते है। किन्तु यह व्यवस्था अधिक देर न रह सकी । क्योंकि 'वट्ठणालक्खणो कालो' के अनुसार काल का स्वभाव वर्त्तना है वह प्रत्येक को अपनी वर्त्तना शक्ति से परिवर्तित करता (बदलता) रहता है । इस काल के दो रूप है निर्माण और सहार । वह एक रूप से किसी वस्तु का निर्माण करता है ता समयोपरान्त उसे अपने दूसरे विकराल रूप से उसका सहार भी कर देता है अतः यह अनन्त है, अगम्य है इसकी गति विचित्र है । तदनुसार प्रकृति प्रकोप से उन वृक्षों की शक्तिया कम होती चली गई जिससे स्तुओं का अभाव होने लगा और जहां अभाव होता है वहा कलह
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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