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जैन महाभारत
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लक्ष्मी उद्योग मे ही रहती है । इसलिये मुझे भयकर से भी भयंकर विपत्ति में पड़ कर भी उद्योग से परागमुख नहीं होना चाहिये ।
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इस प्रकार उस दावानल से निकल कर मैं एक देश से दूसरे देश में घूमता हुआ प्रियगुपट्टन नामक नगर में जा पहुचा। वहां के एक अधेड़ अवस्था के एक अत्यन्त सौम्य आकृति वाले सेठ ने कहा कि अरे तू । तो इभ्यपुत्र चारूदत्त है ? मैने कहा हॉ, प्रसन्न होकर वह मुझे अपने घर ले गया। वहां प्रेमाश्रुपूर्ण नेत्रों व गदगद कठ से प्यार भरी वाणी मे उसने मुझे कहा कि हे वत्स | मै सुरेन्द्रदत्त साथवाह तुम्हारा पड़ोसी हूं । मैने तो सुना था कि सेठ जी के दीक्षा ले लेने के पश्चात् चारुदत्त गणिका के घर में रहने लगा है सो अब तुम्हारे आने का क्या कारण है। तब मैने अपना सारा वृतान्त कह सुनाया । इस पर उसने मुझे सान्त्वना देते हुये कहा कि घबराओ नहीं। मै तुम्हारे प्रत्येक काय में सहायता करूगा । यह घर बार धन सम्पत्ति आदि सब कुछ तुम्हारी ही है । यह कह कर उसने बड़े प्रेम से भोजन कराया और सत्कार पूर्वक कई दिनों तक अपने यहाँ रक्खा। मैं वहां इस प्रकार आनन्द पूर्वक रहने लगा कि मानो अपना ही घर है । कुछ दिनों पश्चात् मैने सुरेन्द्रदत्त से कहा कि मेरा विचार समुद्र के देशों में जाकर व्यापार करने का है । इसलिये आप यदि मेरी सहायता करें तो मैं -यहाॅ से माल भर ले जाऊं और दूसरे व्यापारियों की भाँति खूब धन कमा लाऊ | मेरा ऐसा विचार देख सुरेन्द्रदत्त ने एक लाख रुपया दे दिया । जिससे मैने अनेक वस्तुएं खरीद कर जहाज में भर लीं और विदेश यात्रा की तैयारी करने लगा ।
एक दिन शुभमुहूर्त और अनुकूल पवन देखकर तथा राज्य से आव श्यक पारपत्र, प्रमाणपत्र आदि प्राप्त कर मैने समुद्र यात्रा प्रारम्भ कर दी। मेरे जहाज चीन देश की ओर बढ़ने लगे। मार्ग में अनेक भयकर तूफानों, विघ्न बाधाओ और मारणान्तिक सकटों को पार करते हुए हमारा जहाज चीन तक जा ही पहुँचा । कुछ दिन चीन में रह कर तथा अनेक वस्तुओं का क्रय-विक्रय कर मैं सुर्वण भूमि (सुमात्रा) की ओर चल पडा। इस प्रकार सुवर्णभूमि तथा आस पास के सुदूर दक्षिण
के द्वीपों में घूमता और व्यापार करता हुआ वापिस पश्चिम की ओर चल पडा । कमलपुर और यव द्वीप (जावा) होता हुआ मे ( सिंहल )