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________________ १२२ जैन महाभारत मेरा विदेश भ्रमण वसतसेना के घर से निकल कर मैं सीधा अपने घर पहुंचा। वहाँ देखा तो मेरे पिता ससार से विरक्त हो गये थे और मेरी माता तथा मित्रवती अत्यन्त दुखित होकर रो रही है । मुझे देखकर उन्होंने मेरा उदास भाव से स्वागत किया। मैं भी समग्र धन के नष्ट हो जाने के कारण बड़ा चिंतित और उदास था। धनाभाव के कारण अव मेरा नगर मे रहना और लोगो को मह दिखाना भी कठिन हो गय था। इसलिये मैंने अपनी माता के समक्ष यह विचार प्रगट किया कि मैं विदेश जाकर धन कमा लाऊँ तो कितना अच्छा हो। क्योकि मैं इस प्रकार दरिद्रतापूर्ण और अपमानित जीवन को लेकर अपने सम्बन्धियों में कैसे रह सकता हूं। कहा भी है कि 'न बन्धु मध्ये धनहीन जीवनम्' आपके चरणो की कृपा से विदेश मे व्यापार के द्वारा अवश्य प्रभूत धन अर्जित कर लाऊँगा ऐसा मझे दृढ़ विश्वास है। यह सुन मेरी माता ने समझाया कि तू नहीं जानता है कि व्यापार मे कितने परिश्रम और अनुभव की आवश्यकता है । तू विदेश मे कैसे रहेगा। तू विदेश मे न जाय तो भी हम दोनों भाई बहन होकर सब निर्वाह चला लेगे। तब मैंने कहा-"माताजी ऐसा न कहिये । मैं भानुदत्त मेठ का पुत्र हू । क्या मै इस प्रकार दुर्दशा मे रह सकता हूं। इसलिये आप चिन्ता न करे और मुझे अाजा दे दे। इस पर उन्होंने उत्तर दिया कि यदि तेरा बढ़ निश्चय है तो मैं तेरे मामा से इस पर विचार विनिमय कर कल तुझ बताऊँगी। तत्पश्चात् मै अपने मामा के साथ विदेश यात्रा के लिए निकल पड़ा । पैदल चलते चलते हम दोनो अपने जनपद की सीमा को पार कर कुशीरावर्त' नामक नगर में जा पहुँचे । मेरे मामा मुझं नगर से वाहर बैठाकर स्वय नगर मे गए और वहाँ से स्नान आदि के लिए १ बंध्या के यहा मे चलकर वह अपने मामा सर्वार्थ के यहाँ पहुचा और वहा से रह और उसका मामा दोनो रावर्त नगर की अोर व्यवसाय के लिए चल परे । ऐना भी उल्लेख पाया जाता है। २ उगीग्वति ।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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