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जैन महाभारत चला गया। कलिंगसेना को पहले से ही सब बात मालूम थी इसी लिए वहाँ पहुंचते ही उसने हम दोनों का बडा ही स्वागत किया और
आसन आदि देकर पूर्ण सत्कार करने लगी। थोड़े समय के बाद रुद्रदत्त और कलिंग सेना का जूआ जुटा। कलिंगसेना बड़ी चालाक थी उसने चाचा का दुपट्टा तक जीत लिया यह देख मुझे बड़ा क्रोध
आया मैंने रुद्रदत्त को तो अलग हटाया और स्वय उसके साथ जुआ खेलने बैठ गया । कलिंगसेना को मेरे साथ जूआ खेलते देख वसतसेना से न रहा गया वह भी अपनी मा को अलग हटा मेरे सामने बैठ कर जूआ खेलने लगी। मै जूआ खेलने में सर्वथा लीन हो गया, मेरी सब सुधिबुधि किनारा कर गई । थोड़ी देर के बाद मुझे बड़े जोर से प्यास लगी। मुझे प्यास से पीड़ित जान वसंतसेना ने मोहिनी चूर्ण डाल अतिशय सुगन्धित शीतल जल पिलाया। अब वसंतसेना पर मेरा पूर्ण विश्वास हो गया। धीर-धीरे मेरा अनुराग भी उस पर प्रबल रीति से बढ़ने लगा। जब कलिंगसेना ने हम दोनों को आपस में पूर्ण अनुरुक्त देखा तो वह शीघ्र ही हमारे पास आई और मेरे हाथ में अपनी पुत्री वसंतसेना का हाथ गहा चली गई । मैं विषयों में इतना आसक्त हो गया कि बारह वर्ष तक वसतसेना के घर में ही रहा, अन्य कार्यों की तो क्या बात ? अपने पूज्य माता-पिता और अपनी प्यारी धर्मपत्नी मित्रवती तक को भी भूल गया । उस समय तरुणी वसतसेना की सेवा से अनेक दोषों ने मुझे अपना लिया था। इसीलिए दुर्जन जिस प्रकार सज्जनों को दबा देते हैं उसी प्रकार विद्या और वयोवृद्ध मनुष्यों की सेवा से उपार्जन किये हुए मेरे अनेक उत्तमोतम गुणों को आकर दोषों ने सर्वथा दबा दिया था, मेरा पिता सोलह करोंड दीनारों का अधिपति था । धीरे-धीरे वे सोलहों ही करोड दीनार वेश्या के घर आ गई । जव समस्त धन समाप्त हो चुका तो मेरी प्यारी स्त्री मित्रवती का गहना भी आना शुरू हुआ। भषण देखते ही कलिंगसेना को मेरे घर के खोखलेपन का पता लग गया। उस दुष्टिनी ने मेरे छोडने का पक्का निश्चय कर लिया, एक दिन अवसर पाकर वह एकान्त में वसंतसेना के पास आई और इस प्रकार कहने लगीप्यारी पुत्री मैं तुझे तेरे हित की बात बताऊं तू सावधान होकर