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________________ वसुदेव का गृहत्याग मेरा कोई अपराध नहीं तो अकारण ही मुझे किसी प्रकार का कोई दूस क्यों दिया जाय । माना कि इस नजरबन्दी की अवस्था में मुझे किस प्रकार का कोई दुःख, कष्ट या प्रभाव नहीं है, पर है तो यह आखि एक प्रकार का कारागार ( कैद ) ही । वसुदेव कुमार का जीवन वन्दीगृ में नहीं बीत सकता । वह स्वच्छन्द विहग की भाँति समग्र भू मंडल निशक भाव से विचरण करेगा | देखे उसे कौन सा बन्धन रोकेगा उसके आगे बढते हुए पात्रों को कौन से निगड़ जकडेंगे । विश्व ऐसी कोई शक्ति नहीं जो मुझे अव यहाँ बन्दी बनाये रख सके । G इस प्रकार सोचते-सोचते बहुत रात बीत गई और कुछ क्षणों लिए उनकी आँखें अपने लगीं । किन्तु उनकी आँखों में नींद कहाँ थ उन्होंने अपना कर्त्तव्य और मार्ग निश्चित कर लिया। वे राज महा के उस पार सुख वैभव को लात मार कर घर से बाहर निकलने लिए उद्यत हो गए । उन्होंने चुपचाप अपने सेवक के द्वारा सारथी को बुलाया । अं कहा कि तत्काल रथ तैयार कर लाओ, मेरे राजोपवन से बाहर ज की चर्चा कान कान भी नहीं होनी चाहिए । क वसुदेव कुमार की आज्ञानुसार सारथी रथ ले आया और उस सवार हा वसुदेव कुमार वघनघोर घटाओ से घिरी काली रात म चाप नगर से बाहर निकल गये । पश्चिम की ओर थोड़ी दूर च चलते श्मशान भूमि के पास पहुॅच उन्होंने अपना रथ रुकवाया । श्रु सारथी से कहा कि तत्काल लकडिया लाकर एक चिता तैयार चिता के तैयार हो जाने पर एक पत्र लिख कर सारथी को दे दिय और कहा कि इसे अभी महाराज को जाकर दे दो। और तुम्हे च चलते पीछे लौट कर देखने की भी आवश्यकता नहीं है। इस प्र पत्र लेकर सारथी ज्यों ही चला कि पीछे से चिता मे मे धॉय फरती हुई ज्वालाएँ उठने लगीं, जिसके प्रकाश से सारा पथ आलो हो उठा । अमावस्या के सूचिभेद्य अन्धकार में उस परम दीप्त चित
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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