________________
जैन-समाजका ह्रास क्यों ?
चाल्युक्य, चोल, होयसल और गंगवंशी राजाओंने कोई प्रयत्न उठा न रखा था, और जो धर्म भारतमें ही नहीं, किन्तु भारतके बाहर भी फैल चुका था। उस विश्व-व्यापी जैन-धर्मके अनुयायी वे करोड़ों लाल आज कहाँ चले गये ? उन्हें कौनसा दरिया बहा ले गया ? अथवा कौनसे भूकम्पसे वे एकदम पृथ्वीके गर्भमें समा गये ? . जो गायक अपनी स्वर-लहरीसे मृतकोंमें जीवन डाल देता था, वह
आज स्वयं मृत-प्राय क्यों है ? जो सरोवर पतितों-कुष्ठियोंको पवित्र बना सकता था, आज वह दुर्गन्धित और मलीन क्यों है ? जो समाज सूर्यके समान अपनी प्रखर किरणोंके तेजसे संसारको तेजोमय कर रहा था, आज वह स्वयं तेजहीन क्यों है ? उसे कौनसे राहूने ग्रस लिया है ? और जो समाज अपनी कल्पतरु-शाखाओंके नीचे सबको शरण देता था, वही जैनसमाज अाज अपनी कल्पतरु शाखा काटकर बचे-खुचे शरणागतोंको भी कुचलनेके लिये क्यों लालायित हो रहा है ?
यही एक प्रश्न है जो समाज-हितैषियोंके हृदयको खुरच-खुरचकर खाये जारहा है । दुनियाँ द्वितीयाके चन्द्रमाके समान बढ़ती जारही है, मगर जैन-समाज पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान घटता जारहा है । आवश्यकतासे अधिक बढ़ती हुई संसारकी जन-संख्यासे घबड़ाकर अर्थ-शास्त्रियोंने घोषणा की है कि "अब भविष्यमें और सन्तान उत्पन्न करना दुख-दारिद्रयको निमंत्रण देना है।" इतने ही मानव-समूहके लिये स्थान तथा भोज्यपदार्थका मिलना दूभर होरहा है, इन्हींकी पूर्ति के लिये अाज संसारमें संघर्ष मचा हुआ है और मनुष्य-मनुप्यके रक्तका प्यासा बना हुआ है । यदि इसी तेज़ीसे संसारकी जन-संख्या बढ़ती रही तो, प्रलयके श्रानेमें