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जैन-समाजका ह्रास क्यों ?
जातिमें विवाह कैसे हो सकता है ? कितनी ही जातियोंमें लड़के अधिक और कितनी ही जातियोंमें लड़कियाँ अधिक है । योग्य सम्बन्ध तलाश करनेमें कितनी कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं, इसे वे ही जान सकते हैं जिन्हें कभी ऐसे सम्बन्धोंसे पाला पड़ा हो । यही कारण है कि जैनसमाज में १२४५५ लड़के लड़कियाँ तो ४० वर्षकी आयुसे ७० वर्ष तककी श्रायुके कारें हैं। जिनका विवाह शायद परलोकमें ही हो सकेगा ।
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जिस समाजके सीने पर इतनी बड़ी युके अविवाहित अपनी दारुण कथाएँ लिये बैठे हों, जिस समाजने विवाहक्षेत्रको इतना संकीर्ण और संकुचित बना लिया हो, कि उसमें जन्म लेने वाले प्रभागोंका विवाह होना ही असम्भव बन गया हो; उस समाज की उत्पादन-शक्तिका निरन्तर ह्रास होते रहने में श्राश्वर्य ही क्या है ? जिस धर्मने विवाह के लिये एक विशाल क्षेत्र निर्धारित किया था, उसी धर्मके अनुयायी आज अज्ञानवश अनुचित सीमाओं के बन्धनोंमें जकड़े पड़े हैं, यह कितने दुःखकी बात हैं !! क्या यह कलियुगका चमत्कार है ?
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जैनशास्त्रोंमें वैवाहिक उदारता के सैंकड़ों स्पष्ट प्रमाण पाये जाते हैं । यहाँ पं० परमेष्ठीदासजी न्यायतीर्थ कृत “जैनधर्मकी उदारता" नामक पुस्तकसे कुछ अवतरण दिए जाते हैं, जो हमारी आँखें खोलनेके लिये पर्याप्त हैं :--
भगवज्जिनसेनाचार्यने श्रादिपुराण में लिखा है कि
शूद्राशूद्रेण वोढव्या नान्या स्त्रां तां च नैगमः । वहेत्स्वां ते च राजन्यः स्वां द्विजन्मा व चच्च ताः ॥
अर्थात् -- शुद्र को शुद्रकी कन्यासे विवाह करना चाहिये, वैश्य, वैश्य -