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________________ रावण-वंश खोला अपना ध्यान, सामने बैठी राजदुलारी । अद्भुत भोलापन मुखपर है, नल कुबेर बलिहारी ॥ चंद्रवदन वर गोल शुक्ल, चौदस की सी उज्याली । सदाचार की रेखा भी, मस्तक पर पड़ी निराली || दौड़ क मे नहीं कसर है, ढल सांचे मे तन है, मन ही मन है ॥ लाल मुख बिम्ब अवर 1 मीच खोल कर आँख कुमर ने सोचा दोहा r क्या देवी ने आन के, धारा दर्शक रूप । या कोई नृप कन्यका, अदभुत रूप अनूप ॥ ४ क्या मेरी परीक्षा लेने, कोई देवी सन्मुख आई है । या कोई राजकुमारी जिसने, मुझपर नजर टिकाई है | या कारण वश वन में आकर, दुःखिया शरणा चाहती है। क्योकि यह अबला इस उद्यान में, साथ रहित दिखलाती है ।। कर्त्तव्य यही मेरा पहिला, इससे कुछ हाल मालूम करू । यदि निराधार दुखिया कोई, तो सुख इसके अनुकूल करू ॥ परीक्षा का कुछ कारण है, तो भी मुझको कुछ फिकर नही । क्योकि अनुकूल है मन मेरा, प्रतिकूलं का कोई जिकर नहीं । यदि है चोला पराधीन तो, आपत्ति कुछ आवेगी । पर यहाॅ से तो अब चलना है, होगी सो देखी जावेगी || 1 दोहा गुप्त दृष्टि से जिस समय, देखा अबला ओर । कैकसी अति खुश हुई, देख मेघ जिम मोर ।।
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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