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रामायण
मेरी शक्ति नहीं ऐसी, कि मैं बल से उसे जीतू। शुक्ल निर्बल पुरुष को, छल की आदत होई जाती है।
दोहा . करता करता जा रहा, निज विचार श्रीकंठ । इधर आईये बाग मे, लगे जरा कुछ ठंड ॥ पद्मा की दृष्टि पड़ी, उसी पत्र पर जाय ।
आज्ञा पा चेटी दिया, उसी समय कर लाय ॥ जब पढ़ा पत्र सहसा विचार, 'चक्कर मस्तक मे घूम गया । या यो कहिये कि श्रीकंठ के, सिर से बुरा मक्सूम गया । निवास गृह मे जा बैठी, चेरी जन को निज काम लगा। ले हाथ लेखनी कागज पर, उत्तर लिखने लगी ध्यान जमा ।
दोहा स्वस्ति श्री सर्वोपमा, गुणिजन मे प्रवीण ।
आकर्पण गुण लेखने, लिया कलेजा धीन । सम्बन्ध सभी पीछे होगा, पहिले परिचय कराने से। कोई कष्ट पड़े उसको सहने मे, अपना साहस बढ़ाने से ॥ कर्तव्य जो हो अपना उसपर भी, दृष्टि जमा लेनी चाहिये। प्रकृति मिले परस्पर परीक्षा, लेनी और देनी चाहिये। क्या नाम आपका धाम सहित, और किसके राज दुलारे हो। अर्धाङ्गनी है कौन आपकी, या कि अभी कुंवारे हो॥
आसान सभी कर्त्तव्य कठिन, होता दिल लेना देना है। मन मिले बिना क्या कहो आप, कब प्रेम का दरिया बहना है ।। अनमेल का मेल मिला लेना, बुद्धिमानी से बाहिर है। बिगड़े पय कांजी की छीट पड़े, यह भी मिसाल जग जाहिर है।।