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रामायण
दोहा ( शूर्पणखा )
अव्वल तो उद्यान मे, बैठे दूर उपयोग नही दोयम लगे, उड़े
हजूर । व्योम मे घूर ॥
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मै
जरा पास आ करके अपना सारा हाल मनुष्य मात्र से डरी हुई, कुछ भय इस कुछ हाल पूछना चाहते है, अनुमान यही
सुनाती हूँ । कारण खाती हूँ ॥ मैं पाई हूँ ।
. अब कान लगाकर सुन लीजे, मै पास सुनाने आई हूँ ॥
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दोहा
पुत्री हूं भूपाल की, सोई शिखर आवास | एक विद्याधर था जा रहा, बैठ विमान आकाश ॥
यह देख रूप मेरा मोहित हो गया उसी दम विद्याधर ।
मै निद्रागत मुर्दे समान थी, मुझे नहीं कुछ रही खबर ॥ बस डाल विमान में ले भागा, यह कह नहीं सकती गया किधर । वह मुझे जिधर ले चला, और एक आ विद्याधर मिला उधर ।। दोहा ( शूर्पणखा )
निद्रा जब मेरी खुली हुई बहुत हैरान ।
देखा तो चहुं ओर है, बियाबान उद्यान ॥ यह देख मेरी सुन्दरताई, दूजा विद्याधर ललचाया । और मुझे खोसने के कारण, झटपट इसको मारन धाया ॥ बैठा कर मुझको एक ओर, फिर लगे परस्पर लड़ने को । यह ऐसा पापी रूप हुवे, तैयार मनुष्य दो मरने को ॥
दोहा
मैं बैठी वहाँ रो रही, किस्मत को लाचार | हाय मेरा अब कौन है, इस बन के मंकार ॥