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श्री स्कन्धकाचार्य चरित्र
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हा हा कार मचा सारे, भागे सब जान बचाने को । जहां पर कोई मनुष्य नजर पड़ा, सुर अग्नि लगा जलाने को || पुरन्द्र यशा की शासन देवी ने आ करी सहाई है । मुनि सुव्रत के पास पहुंचा कर दीक्षा उसे दिलाई है || दंडक और पालक दोनो को, दुःख सुर ने दिये अति भारी । दुःख अतुल भोगने को मंत्री, गया नर्क सातवीं मभारी ॥ काल अनन्त अन्त नही आना, पालक ने दुःख भरना है । भव्य स्वभाव है जिस प्राणी का, कभी न उसने नरना है ॥ दोहा ( सुगुप्त )
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दंडक नृप के देश मे, प्रलय हुई अपार । नर्क और तिर्यच मे गये बहुत नर-नार ॥ उसी दिवस से यह अटवी, दंडकारण्य कहलाती है । कर्म बड़े बलवान यहाँ न, पेश किसी की जाती है ॥ उस दंडक राजा ने भव-भव मे, जन्म मरण दुख पाया है । फिर जन्मा गंधाधिप पक्षी, महारोग बदन मे छाया है ॥ अब मुनियो के दर्श से इसको, जाति स्मरण जान हुआ । जब लगा देखने पूर्व जन्म, पालक खंधक का ध्यान हुआ || तब उसी समय यह गिरा धरण में, पक्षी मूर्छा खा: करके । सीता ने हमारे पैरो पर, यह पक्षी डाला ला करके ।
छन्द ( सुगुप्त )
स्पर्श ओषधी लब्धि हमे, पक्षी का जिस दम तन लगा । वेदना उपशम हुई, जो रोग था सब ही भगा ॥ त्याग तन मन से किया नहीं घात जीवो वन गया धर्मी धर्म धारण, विशुद्ध मन अब तुम्हारे शरण है, इसकी भी रक्षा
की करे ।
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से धरे ॥ कीजिये ।
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