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________________ २० रामायण उल्टी मति हो नार की, तुम सागर गम्भीर । मात पिता की अय कुमर, चलो बंधावो धीर ॥ अब कहना मानो भरत वीर का, चलो अवध का राज्य करो। मैं हूँ निपट नादान मेरा अपराध, क्षमा सब आज करो। सुत भरत न लेवे राज्य अवध का, सभी तरह समझाया है। इस कारण फिर आकर के तुम को वृत्तान्त सुनाया है। दोहा ( राम) माता सब कर फैसला, फिर आया बनवास । किस कारण फिर हो गया, भाई भरत उदास ॥ भरत राम में फरक समझ, मेरी में कुछ नहीं आता है। दे दिया पिता ने राज भरत को, क्यों नहीं हुक्म बजाता है। पितु प्रतिज्ञा पूर्ण करने को, यह ढङ्ग बनाया था। सब राज्य भरत को दे करके, मैं सैर वनों की आया था। अवधपुरी में अब जाने को, माता मैं तैयार नहीं। शुद्ध क्षत्रिय कुल को दाग लगे, तुमने कुछ किया विचार नहीं। कर्तव्य हमारा वचन पिता का, जो भी कुछ हो सिर धरना है। भरत अयोध्यापति और हमने कुछ वन में बिचरना है । दोहा ( भरत ) मरत-भरत क्या कह रहे कहा न मानू एक । अय भाई मुझ को कहां हुआ राज्य अभिषेक ॥ मुझे कहां अभिषेक राज का, हुआ जरा बतलाओ। फंसू न हरगिज झगड़े में चाहे, लाखो चाल चलाओ। मंत्री लक्ष्मण ताज आप सिर, चाकर मुझे बनाओ। अब चलो अवध में अय भाई ! सब आर्त ध्यान हटाओ ॥
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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