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________________ भरत का राज्य राम करेगे राज्य अभी, वापिस बन से लाऊँगा। चलना जिसने चलो, नहीं मैं अभी चला जाऊँगा। रामचन्द्र के दर्श किये विन अन्न जल नहीं पाऊँगा। रामचन्द्र को लाकर, सिंहासन पर बैठाऊँगा । दौड़ मुझे हर बार सताते, जले को और जलाते । ' भ्रात बन बन दुख पावे, मुझे फेर बतलावो कैसे राज्य सुख भावे। ' छन्द यह देख हालत कैकयी यों दिल ही दिल कहने लगी। और आँसुओं की धार, नेत्रों से अधिक बहने लगी। राज्य यह बिन राम के, चलता नजर आता- नही। सोचा था जिसके वास्ते, सो भरत कुछ चाहता नहीं। अवध क्या संसार में; निन्दा हमारी हो गई। ___ 'जो कीर्ति अनमोल थी, वह आज सारी खो गई॥ . अपयश हुआ सब जगत् में, फिर कार्य न कोई सरा। ___ भग डाला रंग में उसका, यह फल भरना पड़ा। दोहा कर विचार यह कैकेयी, आई दशरथ पास।। __ हाथ जोड़ कहने लगी, जो मतलब था खास ।। दोहा ( कैकयी) आज्ञा मुझको दीजिये, प्राण पति जग नाथ । लाऊ राम बुलाय के, चलू भरत के साथ ॥ अब जैसे भी हो सका राम को, पुरी अयोध्या लाती हूँ। और बने काम जिसतरह नाथ, वैसा ही करना चाहती हूँ।
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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