SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वनवास कारण २४६ सभी यह महल सुख शय्या, मुझे शूलो के मानिन्द है। फिरू बन बन पिया सग तन, सुखाना ही मुनासिव है ॥३॥ पति बन जाय दुख भोगे मै, कैसे महल सुख भोग। पति के संग जी सुख, दुख उठाना ही मुनासिब है ।।४।। दोहा उसको भय कैसे लगे, शीलवत जिस पास । जिस शक्ति से आ बने, देवन पति भी दास ॥ नमस्कार करके हुई, सीता झट तैयार महारानी पर मानो गिरा, आपत्ति का भार । आशा निराशा होय रानी शोक सागर मे पड़ी। नेत्रों मे आँसू बरसते जैसे कि श्रावण की झड़ी। देख कर यह दृश्य सखियाँ भी सभी रोने लगीं। परिचारिका आंसुओं से, अपना मुह धोने लगीं। बोली सभी कि प्रम भी ऐसा ही होना चाहिए । सब को आगे ऐसा ही पुण्य वीज बोना चाहिए ।। जैसा हर्ष था विवाह मे, वैसा हर्ष बनवास है। है सती पूरी नहीं छोड़ा, पति का साथ है ॥ सुख अवध के सब तज दिए एकदम से ठोकर मार के। सेवा करन को साथ ही वन मे चली भर्तार के । दोहा सीता का है पति से निश्चय प्रम अपार । दुनियाँ मे ऐसी सती विरली है दो चार ॥ धन्य जन्म इसका हुआ, धन्य मात और तात । धन्य जिसे व्याही उसे, धन्य विदेही मात ॥
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy