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________________ २३६ रामायण तू रणधीर शूरा, मेरा हमदर्दी पूरा । बेशक राज यह कुडा, धारो हो मजबूर ॥ ४ ॥ चलो अब देर न लावो तख्त पर चरण टिकावो । खुशी सबका मन होवे, राज तिलक मेरे कर से. तेरे मस्तक पर सोहे ।। दोहा ( भरत ) क्यों करते हो हर घड़ी, भ्रात मुझे मजबूर । राज ताज शोभे तुम्हें, मै चरणो की धूर ।। आपके होते हुवे करू मैं, राज्य बड़ा नालायक हूं। निश्चय हूं गुणहीन पिता-माता, सबको दुखदायक हूँ। लाख कहो चाहे कोड हर समय, मैं तो यही पुकारूगा। श्रीराम के होते हुवे कदापि, राज ताज नहीं धारूंगा। - - - - वनवास कारण दोहा दशरथ का सिर डोलता, युक्ति सोची राम । चक्र में आया भरत, बना समझ अब काम ।। इसके मुख से निकल चुका, नहीं राम सामने राज्य करू। तो पुरी अयोध्या छोड़ चलू बन सैर अभी सामान करूं। पीछे सब राज्य कार्य भरत, स्वयं कर लेवेगा। ये ही एक ढंग निराला है, बस पिता वचन वर देवेगा।
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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