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________________ २३४ रामायण हाथ कंकन को अरसी क्या, प्रत्यक्ष सभी दिखलाता हूँ। इस राज के बदले मुझे क्षमा दो, चरणन शीश नमाता हूँ । - दोहा दशरथ मन में सोचता, मुश्किल हुई अपार । राज्य लेने से भरत ने, साफ किया इन्कार ।। गाना नं० १८ (दशरथ का भरत से कहना) सब तरह से समझ रक्खा , भरत तुझको मैं स्याना था। इस तरह साफ इन्कारी, बनेगा यह न जाना था ॥१॥ वचन पहिला ही जब हमने, सभा अन्दर उचारा था। सोच कर सार उसका, अय कुमार हृदय जमाना था ॥२॥ ठीक तैने कहा सो भी, किन्तु नहीं समय को सोचा। गया जो छूट कर से तीर, उसको क्या जिताना था ॥३॥ दोहा (दशरथ) ' बेटा अब तुम मत करो; मुझ प्रतिज्ञा भंग । रानी को था वर दिया; जब जीता था जंग ॥ सिर आंखों से मात पिता का; हुक्म बजा लाना चाहिये । और अपनी बुद्धि का परिचय, मौके पर दिखलाना चाहिये ।। कर्तव्य है पुत्र शिष्य का, जो गुरुजन का हुक्म बजाता है । अब कहो पुत्र मुख से उचार क्या, समझ तुम्हारी आता है ।। दोहा (भरत) ' बेशक मैं अविनत हूं, दुर्बुद्धि दुःखकार । रामचन्द्र को राज्य-दो, मुझे नहीं स्वीकार ।।
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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