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________________ कैकेयी स्वयम्वर १६७ Dhob उसी समय रण भूमि में, सब जुटे शूरमा श्रा करके । हो गये बहुत रण भेट वीर, कई गिरे मूर्छा खा करके ।। दोहा दशरथ नृप का सारथी, गिरा धरन मे जाय । देख दृश्य यह कैकेयी, मन में कुछ घबराय ॥ करी विनती रानी ने. महाराजा की आज्ञा चाहती हैं। सम्पूर्ण कला है ज्ञात मुझे, संग्रामी रथ चलाती हूँ। कृपा आपकी से देखो, मैं अपने हाथ दिखाती हूँ। जीतो शत्रु दल को तुम, मैं बिकट को हवा बनाती हूँ ।। दोहा कवच पहिन रानी चढ़ी, और दशरथ झुझार । सहसा दल मे मच गया, हूं हूँ हा हा कार ॥ पराजय होकर भागे शत्रु विजय हुई दशरथ नृप की । खुशी हुआ बोला नृप रानी, मांगो जो मरजी मन की ।। जो कुछ मांगोगी सो दूगा, क्षत्री मैं कहलाता हूँ। आपकी देख वीरता को मै, फूला नहीं समाता हूँ। दोहा रानी तब कहने लगी, वर रक्खो भण्डार । लेऊगी प्रभु आप से जब होगी दरकार ॥ प्रेम भाव से दशरथ नृप को, शुभमति भूपने विदा किया । शूरवीर जामात समझ, दिल खोल द्रव्य और मान दिया ।। मिथलेश गया मिथला नगरी, सब तरह मित्र का साथ दिया। राजगृही नगरी में जाकर, दशरथ नृप ने वास किया ॥
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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