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रामायण
दोहा निमन्तक तव कहने लगा, सुनो श्री महाराज ।
सदा किसी का ना रहा, आयु साज समाज ।। यही अनादि नियम अटल है, कभी सबेरा श्याम कभी। बने सुरपति पुण्य उदय, हो हीन पुण्य खुश जाय सभी । चक्रवर्ती से चले गये, ना जिस्म किसी के साथ गया । राज खजाने गए छोड़ था, जिसका भाग्य संभाल लिया ।
गाना नं० ५० पैदा हुवा जो मही पा, अन्तिम वह एक दिन जायगा । फूल खिलकर बाग मे, आखिर को वह कुम्हलायगा ।। यह महल मन्दिर और खजाने, सब पड़े रह जायंगे। डेरा बने परभव मे जा, जब काल सिर पर आयगा ।। राज पाट और फौज पलटन, मित्र गण के देखते । सामने बन्धु जनो के, काल तुमको खायगा । अङ्गरक्षक पुत्र नारी, क्या सहायक जन सभी। इनके द्वारा ही यह तन, अग्नि मे डाला जायगा । हो रह खुश देख सम्पत्ति, सो सभी काफूर हो । आप जैसो का पता नहीं, आपका कहां पायगा ॥
दोहा इन्द्रादिक भी ना रहे, मनुष्य मात्र क्या चीज ।
उलट पलट संसार का, श्री जिन भाषा बीज ॥ जनक सुता के हेतु भूप, दशरथ सुत तुमको मारेगा। तीन खण्ड का बने अधिपति, ताज शीश निज धारेगा। लगे सभी अट अट हंसने, उसका उपहास उड़ाते हैं। तव वीर विभीपण समा मध्य, अपने यो भाव सुनाते है ।।