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________________ हनुमानुत्पत्ति नाम बदनाम न करना, मुझे है तेरा शरणा । चरण मे शीश निवाऊ, निकले दोष यदि मेरा तो उसी समय मर जाऊ' ॥ १२५ दोहा गिरी गिराई मुद्रिका, लगी कहीं से हाथ । धक्का देकर सुत गया, आया बतावे रात ॥ जिसको नाम नहीं भाता, उसको आया बतलाती है । समक दुराचारण तुझको, माता भी नहीं बुलाती है || क्लकित करके दोनो कुल, फिर सती भी बनना चाहती है । निकल पापिनी यहां से, क्यों काला मुंह नहीं कर जाती है ॥ । दोहा केतुमति ने उस समय, सेवक लिये बुलाय । ले जावो इसको अभी, पीहर दे पहुॅचाय ॥ यह कलंक यहां से ले जाओ, महेन्द्र नृप को दे आना । । यदि नहीं रखे तो वहीं इसे धक्का देकर वापिस आना ॥ J कह देना सब बात साफ, यह मती जो तुमने व्याही है । उन सबको तो डोबाई, श्रव तुमको डोबन आई है | ऍ दोहा सेवक जन लेकर गये, महेन्द्र नृप के पास । एकान्त बुलाकर के कहा, जो था मतलब खास ॥ जब सुना हाल हुआ दुःख बड़ा, दाँतों मे अंगुल दबाई है । यह सुता नहीं शत्रु मेरी, कीर्ति सब धूल मिलाई है ॥ अब शीघ्र यहाँ से ले जावो, और विजन स्थान छोड़ो जाकर । दुष्टा ये स्वयं मर जावेगी, अपनी करनी का फल पाकर ॥
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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