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________________ हनुमानुत्पत्ति १२१ जो भी है अपराध मेरा, सब भूल क्षमा करना चाहिये । मै हूं नाथ शरीर की छाया, मुझे भुलाना ना चाहिये । दोहा दख फिकर जैसा नही. दनिया मे कोई रोग। खुशी प्रसन्नता सम नही, सुख का और संयोग ।। दुख चिन्ता सब दूर हुई, अब दिल मे अति हर्षाये है। फिर हंसे रमे दम्पति प्रेम, दोनो ने अधिक बढ़ाये हैं। जब लगा कुमर वापिस जाने, रानी ने गिरा सुनाई है। पास चिन्ह कुछ रहने को, यह सब ही बात बनाई है। दोहा प्राणपति तुम तो चले, लड़ने को संग्राम । मुझको देते जाइये, उत्तर का सामान । इस बात को सभी जानते है, नहीं कुमर महल मे जाता है। फिर चले आप संग्राम यहां, नही मेरी कोई सहायता है । मुझे निशानी दे दीजे, क्यो कि अपवाद से डरती हूँ। एक आसरा चरणो का, धर ध्यान गुजारा करती हू॥ दोहा नामांकित दे मुद्रिका, पहुंचे कटक मंझार। फेर गये लंकापुरी, रावण के दर्बार ।। रावण ने दिया वरुण पे, अपना कटक चढ़ाय । लगा घोर संग्राम फिर, रणभूमि मे आय ।। अंजना के होने लगे, प्रकट गर्भ आकार । गुप्तपने की बात थी, कोई न जाने सार || पता लगा जब सास को, केतुमति तसु नाम । आग बबूला होगई, गर्जी सिंहनी समान ॥
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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