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महाराज के बड़े पुत्र सूर्यकुमार राज्य के अधिकारी हुए। इन से सूर्यवंश चला है। रामचन्द्रजी भी इसी वंश के थे।
भगवान् ऋषभदेवजी के निर्वाण पद को प्राप्त करने के पश्चात् लाख करोड़ सागरोपम के पश्चात् दुषम सुषमा नामक चौथे आरे मे स्वर्ग से चवकर दूसरे तीर्थंकर पद के भावी अधिकारी श्री अजितनाथ अयोध्या नगर के राजा जितशत्रु की रानी विजया की कोख में पधारे। इनका जन्म माघ शुक्ला ८ को हुवा। वहां उन्होंने एकहत्तर लाख पूर्व तक गृहस्थोचित राजसुखों का उपभोग किया। तदुपरान्त माघ शुक्ला ६ को अपनी राजधानी ही के उपवन मे संसार के प्रति उपराम हो जाने पर इन्होने दीक्षा व्रत ग्रहण किया। दीक्षा व्रत के बारह वर्ष पीछे पौष कृष्ण ११ को इन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ । तदनन्तर एक लाख पूर्व तक चरित्र का पालन करते रहे और जब सम्पूर्ण कर्मों का नाश कर चुके तब चैत्रशुक्ल ५ को मोक्ष पधारे । गुण संपन्न नास इस कारण रक्खा कि जब यह गर्भ में थे तो इनकी माता इनके पिता के साथ सदा पासों का खेल खेला करती थी। उसमें वह कभी भी पराजित नहीं हुई और यही कारण है कि उसका • नाम 'अजितनाथ' रखा गया। इनके समय में इनके चचा सुमित्र का सुपुत्र सागर हुआ जो आगे चक्रवर्ती राजा हुआ।
दूसरे तीर्थकर अजितनाय जी के निर्वाण पधारने के ३० लाख करोड़ सागरोपम के पश्चात् तीसरे तीर्थंकर श्री, सभवनाथ जी इस लोक मे पधारे । इनका जन्म माघ शुक्ला १४ को हुआ था। श्रावस्ती नारो के जितारी राजा और सेवा रानी इनके पिता माता थे । उनसठ लाख पूर्व गृहस्थाश्रम मे बीते । अगहन शुक्ल १५ को अपनी जन्म भूमि ही के उपवन में जाकर दीक्षा -ग्रहण की । यो जव दीक्षित होने को पूरे चौदह वर्ष हो गये।