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________________ १८ रामायण rrrow यह भी एक कुव्यसन भारी, पराई नार हर लेना। अवश्य सर्वस्व खोकर, वीज वे दुर्गति का बोते है ॥ बनी ना जिनकी अपनो से, परायों से बनेगी क्या।' घरेलू झगड़ो से यह, नीचता के ख्याल होते हैं। यही कर्तव्य मानव का, सदा नीति करे पालन । वही दुनिया के गौरव की, शिखर चोटी पे सोते है। गिरावट का यह मारग है, शुक्ल बचने से इसके तो। नीति अरिहन्त बाली से, कम मल तक को धोते है। दोहा तके आसरा नीच सव, कायर कूर अधीर । रखे भरोसा आप पर, शूर वीर रणधीर ॥ शूरवीर रणधीर भरोसा, भुज बल पर रखते है। चक्र भूप आशाली क्या, नहीं अन्तक से झकते हैं। दुनिया भर के शूर सामने, हो न कभी हटते है। गौरव की रक्षा के कारण, सत्य पुरुष मरते है ।। दौड़ हमें कुछ भी ना चाहिये, आप बस यहां से जाइये। लगी क्या जाल बिछाने, मारु चावुक तान सभी बुद्धि आ जाय ठिकाने॥ दाहा धिक्कार शब्द खाकर चली, कुमुदा हो लाचार । स्वागत विभीपण ने किया, उसका समय विचार । कुमदा आप ना हो कभी, रंचक मात्र उदास । रानी की और आपकी, पूरण होगी आस । पहिले दशकन्धर पे जाके, भूल आपने खाई है।
SR No.010290
Book TitleJain Ramayana Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherBhimsen Shah
Publication Year
Total Pages449
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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