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- रामायण
. .~~~~ .. - ma rrrrmammm जिस दिन मै आई थी, बजे थे बाजे शाहाने ।
यह दिन दिखलाये कर्मो ने, किया कमाल जी॥ कहां ठाठ राजधानी का, कहां आज वन खंड है।
मैं स्वामी सेवक ही न हूँ, जीना मुहाल जी ।। हृदय की अग्नि शान्त अब, नही होगी रोने से। . .. 'पुरुषार्थ अब करना होगा, मुझको विशाल जी.॥ पुरुषार्थ द्वारा जीव हो, कर्मो से स्वतन्त्र ।
होता है सिद्ध बुद्ध अजर जहां पहुंचे ना काल जी। पुरुषार्थ हीनों का नहीं अधिकार जीने का।
और पराधीन यह जिंदगानी, होगी जजाल जी ॥ पालन करू इस बच्चे को, जो होने वाला है।
'दिलवाएं हक इसका, इसे ये ही ख्याल जी। ऐसी विपत्ति मनुप्य पर, आया ही करती है।
इस कर्म गति से बचा रहे, किसकी मजाल जी। क्षत्री धर्म कहता सदा, गौरव पर मरना सीखें। । यश लेने की कोई शुक्ल युक्ति निकाल जी। ,,
दोहा क्षत्राणी ने हृदय मे की अंकित यह बात।
बन में जैसे सिंहनी दिन नही गिनती रात ॥ घनघोर घटा मानिन्द निश्चय, विपदा रानी पै छाई थी। या यो समझे चीलो की न्याई, आपत्ति मण्डलाई थी। पतिव्रता देवी इस कारण, नयनो से नीर बहाती थी। अवलम्बित थी निज आशा पर, और ऐसे कहती जाती थी।
दोहा अशुभ कर्म का ही हुआ, निश्चय मे कोई जोर । । किन्तु यहां व्यवहार भी, कहता है कुछ और ॥